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________________ १०रा० मावा || होनेकी जो उसके अंदर शक्ति है वह उससे अभिन्न है उस अभिन्न शक्तिसे वह दूधस्वरूप परिणत हो || |६|| जाता है इसलिये दूधका अपने ही स्वरूपसे पारणत होना जिसप्रकार यहां युक्त माना जाता है उसी ||5 || प्रकार आत्मा भी अपनी ज्ञानादि स्वभावरूप शक्तिसे अभिन्न है उसी शक्तिके आधीन होकर वह घट ||२|| || पट आदि पदार्थों के अवग्रहज्ञान स्वरूप परिणामसे परिणत होता है इसलिये उसका भी अवग्रहज्ञान ||ई || स्वरूप परिणामसे परिणत होना ठीक है । उस अवग्रह आदिका ही नाम उपयोग है। यदि ज्ञान आदि। 2 उपयोगका परिणमन न माना जायगा तो आत्माका स्वस्वरूप न सिद्ध होनेसे उसका अभाव ही हो। || जायगा और आत्माके अभावमें उपयोग पदार्थ भी सिद्ध न हो सकेगा इसलिये आत्माका उपयोग लक्षण| | मानना अयुक्त नहीं तथा-- उभयथापि त्वद्ववचना सिद्धेः ॥९॥ अनकांतवाद समन्वित भगवान अहतके सिद्धांतको न समझकर शंकाकारने जो यह कहा था कि | 'जो पदार्थ जिस स्वरूप होता है उसका उसस्वरूपसे परिणाम नहीं होता' वह भी अयुक्त है क्योंकि | जहांपर किसी वातका खंडन किया जाता है वहांपर अपने पक्षकी सिद्धि की जाती है और परपक्षमें | |दूषण दिखाये जाते हैं परंतु शंकाकार जो पदार्थ जिस स्वरूपसे है उसी स्वरूपसे तो उसका परिणाम मानता नहीं इसलिये उसके मतमें ये दोनों ही बातें असिद्ध हैं और उनकी असिद्धि इसप्रकार है-- जिसप्रकार ज्ञान गुणका 'जानपना' यह परिणाम माना जाता है उसीप्रकार जो अपना वचन स्वपक्षका साधन और परपक्षका दूषण स्वरूप है उसका भी अपने पक्षको सिद्धकरना' और 'दूसरेक पक्षको दृषितकरना' यह परिणाम है । जो वादी उपयोगको आत्मस्वरूप नहीं मानता उससे भिन्न SARDARSHERECIRECRUIREMESSAGAR ASABARDASREPUREER १९७
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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