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________________ त०रा० ५७७ ALSALEGISHALIAAAAAAACARBA | पहिला भंग है जिसप्रकार उपशांतलोभं क्षीणदर्शनमोह पंचद्रिय जीव । औदयिकक्षायिकक्षायोपश-| | मिकपारिणामिकसान्निपातिकजविभाव नामका दुसरा भंग है जिसतरह-मनुष्य क्षीणकषायी मति-1 ज्ञानी भव्य । औदयिकौपशमिकक्षायोपशामेकपारिणामिकसान्निपातिकजीवभाव नामका तीसरा भंग है जिसप्रकार मनुष्य उपशांत वेद श्रुतज्ञानी जीव । औदयिकौपशमिकक्षायिकपारिणामिकसानिपातिकजीवभाव नामका चौथा भंग है जिसप्रकार मनुष्य उपशांतरागक्षीणदर्शनमोह जीव । और पांचवां औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकसान्निपातिकजीवभाव नामका पांचवां भंग है जि तरह मनुष्य उपशांतमोइ क्षायिकसम्यग्दृष्टि अवधिज्ञानी। ___जहाँपर पांचों भावोंका संयोग है वह पंचभाव संयोगी भेद है और उसका औदयिकोपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिक यह एक भंग है जिसतरह मनुष्य उपशांतमोह क्षायिकसम्यग्दृष्टि पंचेंद्रिय जीव । इसप्रकार यह छब्बीस प्रकारका सान्निपातिक भाव समाप्त हुआ। छत्तीस प्रकारका सान्निपातिक भाव इसप्रकार है-- ___ दो औदयिक भावोंका आपसमें सन्निपात रहनेपर तथा औदयिक भावका औपशमिक आदि चारों से एक एकके साथ संयोग रहनेपर पांच भंग होते हैं। उनमें औदयिकौदयिकसान्निपातकजीव. || भाव नामका पहिला भंग है जिसतरह मनुष्य क्रोधी है । औदयिकौपशमिकसानिपातिकजीवभाव नामका दूसरा भंग है जिसतरह मनुष्य उपशांत क्रोधी । औदायिकक्षायिकसाग्निपातिकजीवभाव नामका तीसरा मंग है जिसतरह मनुष्य क्षीणकषायी । औदायिकक्षायोपशामकसानिपातिकजीवभाव नामका चौथा भंग है जिसतरह क्रोधी मतिज्ञानी । औदयिकपारिणामिकसान्निपातिकजीवभाव नामका पांचवां भंग है जिसतरह मनुष्य भव्य। ७३
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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