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________________ अध्याय SHASHARELUGUSHAILESEA RORSABERD || जब 'सान्निपातिक भावकी सचा है' यह पक्ष है तब सान्निपातिक भाव और शायोपशमिक भाव दोनों || भावोंका मिश्र शब्दसे ग्रहण है यह चकार द्योतन करता है इसलिये कोई विरोध नहीं । यद्यपि स्वतंत्र + रूपसे सानिपातिक कोई भाव न हो, तथापि आगममें उसके नामका उल्लेख है इसलिये वार्तिककार यहां कुछ उसके भेद बतलाते हैं षड्विंशतिविधः षट्त्रिंशद्विधः एकचत्वारिंशद्विध इत्येवमादिरागमे उक्तः ॥२४॥ | सानिपातिक भावके छब्बीस छत्चीस और इकतालास भेद भाव आगममें कहे गये हैं। वह आगम | वचन इसप्रकार है-- | दुग तिग चदु पंचे वय संजोगा होंति सन्निवादेसु । दस दस पंचय एकय भावो छब्बीस पिंडेण ॥१॥ | द्वौ त्रयः चत्वारः पंचैवच संयोगा भवंति सन्निपातेषु। दश दश पंच च एकश्च भावाः षड्विंशाः पिंडेन ॥१॥ अर्थात्-दो भावोंके आपसमें संयोग रहने पर दश सान्निपातिक भाव होते हैं । तीनके संयोग | रहने पर भी दश, चारके संयोग रहने पर पांच और पांचों भावोंका एक साथ संयोग रहने पर एक | इसप्रकार मिलकर सानिपातिक भावके छन्वीस भेद हैं । इस सान्निपातिक भावके भेदोंका खुलासा इस | प्रकार है-- दो भावोंका आपसमें संयोग रहने पर दश सान्निपातिक भाव होते हैं जहां पर औदयिक भाव | प्रत्येक संयोगमें प्रधान रूपसे रहता है और शेष औपशमिक आदिमें एक एक छूटता चला जाता है वह | | पहिला द्विभाव संयोगी भेद होता है। उसके चार भंग माने हैं। उनमें औदयिकोपशमिक सान्निपातिक | जीव भाव नामका पहिला भंग है जिसतरह मनुष्य उपशांतक्रोधी यहांपर उपशांतक्रोध होनेसे तो| ASTRORMALE SA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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