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________________ B *अध्याय ०रा० माषा आत्माकी प्रतिनियत शक्तिका ही कार्य है परंतु भोगांतराय कर्मका संबंध आत्माके साथ सिद्ध है और उसके क्षयोपशमसे भोक्तृत्व हो सकता है इसलिये उसे भोगांतराय कर्मके क्षयोपशमका कार्य मान लिया है। यदि यहां पर यह कहा जाय कि प्रतिनियत शक्तिके द्वारा ही जब आत्मामें भोक्तृत्व धर्म सिद्ध है ५६५|| तब भोगांतराय कर्मके माननेकी क्या आवश्यकता है ? वह ठीक नहीं । भोगजन्य सुखका अनुभव करना ही वहां भोगांतराय कर्मके क्षयोपशमका कार्य है.। जिस आत्माके अंदर भोगांतराय कर्मकी क्षयोपशमरूप लब्धि है वह भोगजन्य सुखका अनुभव करता है । जिसके अंदर नहीं है वह नहीं इस|| लिये भोगांतराय कर्म व्यर्थ नहीं माना जा सकता। | पर्यायवत्त्व और पर्याय दोनों एकार्थवाचक हैं। जीव अजीव आदि सब द्रव्योंमें समय समय प्रति नियत रूपसे पर्यायोंकी उत्पत्ति होती है इसलिये सब द्रव्योंमें रहने के कारण पर्यायवत्त्व धर्म साधारण है || तथा पर्यायवत्त्वकी उत्पचिमें सामान्यरूपसे किसी भी कर्मके उदय क्षय आदिकी अपेक्षा नहीं रहती इस लिये वह पारिणामिक है। MPI सर्वगतत्त्वका अर्थ सर्वव्यापीपना है। जो पदार्थ सर्वव्यापी नहीं वह असर्वगत है। परमाणु स्कंध आदि पुद्गल द्रव्य असर्वगत हैं। धर्म अधर्म आत्मा आदि द्रव्य परिमित असंख्यात प्रदेशी है इस. लिये सब द्रव्योंमें रहने के कारण असर्वगतत्त्व धर्म साधारण है तथा वह अपनी उत्पचिमें कौके उदय आदिकी अपेक्षा नहीं रखता इसलिये पारिणामिक भाव है। । विशेष-यद्यपि आकाशद्रव्य सब जगह रहने के कारण सर्वव्यापी है इसलिये उसमें न रहनेके | कारण असर्वगतत्व धर्म साधारण नहीं कहा जा सकता परंतु आकाशके लोकाकाश और अलोकाकाश SASAREDCHUCHEREMONSTRALIAB ABASAASARACCORRORISROPIERSPUR AD 1५६५
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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