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________________ UGREE REACHESALMA है उत्पत्तिमें चारित्रमोहनीयकर्मका उदय कारण है इसलिये वे भी अपनी उत्पचिमें कर्मके उदयकी अपेक्षा रखनेके कारण पारिणामिक भाव नहीं हो सकते।योगअपनी उत्पचिमें कर्मोंके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखते है हैं यह बात ऊपर कही जा चुकी है इसलिये वे भी पारिणामिकभाव नहीं कहे जा सकते परंतु पुण्य और ॥ पापका कर्तृत्व आत्मा सिवाय किसी भी अन्य द्रव्योंमें नहीं रहता एवं अनादिकालीन पारिणामिक चैतन्य भावके सन्निधानमें इसकी उत्पचि होती है इसलिये अपनी उत्पचिमें कर्मोंके उदय आदिकी अपेक्षा न 8 रखनेके कारण पुण्य और पाप कर्तृत्व पारिणामिक भाव है और असाधारण भी है इसलिये इसकी गणना जीवत्व आदि भावोंके साथ पृथक् रूपसे होनी चाहिये ? सो ठीक नहीं। यदि अनादि कालीन पारिणामिक चैतन्य भावको पुण्य पापकी उत्पचिमें कारण माना जायगा तो सदाकाल आत्मामें पुण्य है पापकी उत्पत्ति होती रहेगी फिर सिद्धोंके भी पुण्य पापकी उत्पचि कहनी पडेगी क्योंकि उनकी उत्पचिका कारण चैतन्य सिद्धोंके अंदर भी विराजमान है। तथा पुण्य पापकी उत्पचिका कारण चैतन्य सब संसारी जीवोंके समान है इसलिये सामान्यरूपसे सबोंके एकसमान पुण्य पापका कतृत्व होना । चाहिये। परंतु ऐसा होता नहीं इसलिये असाधारण होनेपर भी पुण्य और पापको कर्तृत्व पारिणामिक भाव नहीं माना जा सकता किंतु कर्मों के उदय और क्षयोपशमके आधीन उसकी उत्पत्ति है इसलिये (. उसे औदयिक और क्षायोपशमिक भाव मानना ही युक्त है। । भोक्तृत्व और भोग दोनों एक हैं और शक्तिकी अधिकतासे परपदार्थोंकी शक्तिको ग्रहण करनेका सामर्थ्य रखना भोक्तृत्व शब्दका अर्थ है । जिसतरह-आत्मा अपनी शक्तिकी आधिकतासे पर द्रव्य स्वरूप घी दूध आदि आहारकी शक्ति ग्रहण कर लेता है इसलिये वह भोक्ता है और उसके अन्दर RECEMSHEOREMIEREASOAMADRAS GEHORESAME% ५५
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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