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________________ अध्याय भीतरके आगामीकालमें सिद्धि लाभ न कर सकेगा वह उसके वाहिरके आगामीकालमें करेगाआगामी कालपना नष्ट नहीं हो सकता। परंतु अभव्य'कभी भी सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता इसलिये कथंचित | कालकी तुल्यता समझ भव्यको अभव्यके समान बताना निर्मूल है। अर्थात् भव्यमें मोक्षप्राप्तिकी शक्ति ५५७॥ है अभव्यमें शक्ति भी नहीं है। सारांश यहां यह है कि-- ___ जो जीवात्मा अनंतकाल के बाद भी सिद्धि न प्राप्त कर सके किंतु उसके अंदर मोक्ष प्राप्त करनेकी | सामर्थ्य हो और योग्य कारण कलापसे उस सामर्थ्य के प्रगट हो जानेकी जिसमें योग्यता हो वह भव्य | ही है किंतु जिसके अंदर मोक्ष प्राप्त करनेकी सामर्थ्य ही न हो मोक्ष प्राप्तिके योग्य कारण कलापके मिलने पर भी जो कभी गुण प्राकट्यकी योग्यता नहीं रख समानता मिल भी जाय तो भी भव्य, अभव्य नहीं कहा जा सकता। भावस्यैकत्वनिर्देशो युक्त इति चेन्न द्रव्यभेदाहावभेदसिद्धेः॥१०॥ ___ 'जीवभव्याभव्यत्वानि' यहांपर जीवश्च भव्यश्चअभव्यश्च जीवभव्याभव्या इस द्वंद समासके करने 2 के बाद जीव आदिके भावकी विवक्षा रहने पर तेषां भावा जीवभव्याभव्यत्वानि ऐसी सिद्धि है। यहां पर यह शंका होती है कि उपर्युक्त द्वंद्वसमासके बाद भावकी विवक्षा रहने पर 'जीवभव्याभव्यानां भावः, जीवभव्याभव्यत्वं' यह एक वचन कहना चाहिये था जीवभव्याभव्यात्वानि यह बहवचन क्यों किया ६ गया ? परंतु वह ठीक नहीं। जब जीव अभव्य आदि भिन्न भिन्न है तव उनके भाव भी भिन्न भिन्न ही होने चाहिये, तथा भावप्रत्यय रहने पर एक ही वचन होता है यह कोई नियम भी नहीं इसलिये जीव आदि द्रव्योंके भेदसे जब भावभेद होना अयुक्त नहीं भावमें एक वचनका कहना भी नियमरूप नहीं SHRECANCHEACHECHARGESCORRECAR AURUBIRBARHASTRADASTI-CANCHOROSAND ५७
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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