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________________ uxu- - - * २ - । जो भाव कर्मों के उदयसे हों उन्हें औदयिक भाव माना है। सूत्रकारने उन औदयिक भावोंके 5 केवल इक्कीस ही भेद गिनाये हैं परंतु उनके और भी भेद हैं और वे इसप्रकार हैं-जिसप्रकार ज्ञानावरण , अध्य % कर्मके उदयसे होनेवाला अज्ञान भाव औदयिक है उसी प्रकार दर्शनावरण कर्मके उदयसे अदर्शन निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला आदि, वेदनीय कर्मके उदयसे सुख दुःख, नोकषाय वेदनीयके उदयसे हास्य रति र है अरति आदि छह भाव, आयु कर्मके उदयसे भव धारण करना भाव, उच्चगोत्रके उदयसे उच्चगोत्र परि. है णाम, नीचगोत्रके उदयसे नीचगोत्र परिणाम और नामकर्मके उदयसे जाति आदिक भाव होते हैं इसहै लिये ये भी सब औदयिक भाव हैं परंतु इनको सूत्रमें भिन्न भिन्न रूपसे गिनाया नहीं गया इसलिये । सूत्रमें कमी कही जायगी । यदि कदाचित् यह कहा जाय कि यहांपर आत्माके भावोंका प्रकरण चल ५ रहा है इसलिये शरीर आदि कुछ भाव हों भी तो भी वे पुद्गलविपाकी कर्मके उदयसे जायमान हैं इस. लिये यहां सूत्रमें उनका ग्रहण नहीं किया जा सकता ? सो ठीक नहीं। क्योंकि बहुतसे जीवविपाकी हूँ होनेसे जाति आदिक आत्माके भी भाव हैं इसलिये उनका ग्रहण तो सूत्रमें होना चाहिये । बिना उन्हें ६ ग्रहण किये सूत्रकी कमी पूरी नहीं हो सकती इसवातका वार्तिककार खुलासा रूपसे उचर देते हैं मिथ्यादर्शनेऽदर्शनावरोधः ॥९॥ * सूत्रमें जो मिथ्यादर्शनका उल्लेख किया गया है उसमें अदर्शनका अंतर्भाव है तथा निद्रा निद्राॐ निद्रा आदिक भाव भी दर्शनावरण सामान्य कर्मके उदयसे होते हैं इसलिये उनका भी मिथ्यादर्शनके ६ अंदर ग्रहण है। यदि यहाँपर यह शंका की जाय कि जीव आदि पदार्थों को याथात्म्यरूपसे श्रद्धानका न होना मिथ्यादर्शन कहा गया है और यहांपर जो अदर्शन है उसका अर्थ न दीखना है । एकदम
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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