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________________ ला या अध्याय स०रा० भाषा काललब्धि जातिस्मरण आदि कारणोंसे अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यके भी उक्त प्रकृतियोंका उप- 15. हूँ|| शम होता है। उनका खुलासा स्वरूप इस प्रकार है काललब्धिके सामान्य काललब्धि कर्मस्थितिकी अपेक्षा काललब्धि आदि भेद हैं । मोक्ष | || होने के लिये अर्धपुद्गलपरावर्तन मात्र काल वाकी रहै अधिक वाकी न रहै उस समय कर्मसे सदामली. मस अनादि मिथ्यादृष्टि भी भव्य आत्माके प्रथम सम्यक्त्व (प्रथमोशम सम्यक्त) के ग्रहण करनेकी ||| योग्यता प्रगट हो जाती है-उस समय वह अवश्य ही प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण कर सकता है यही || पहिली सामान्यकाललब्धि कही जाती है । तथा उत्कृष्ट स्थितिवाले वा जघन्य स्थितिवाले कर्मों के || विद्यमान रहते प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणकी योग्यता नहीं होती किंतु आयु कर्मके विना 'घुणाक्षरन्याय-1 || से' अंतः कोटाकोटि सागर प्रमाण कर्म उसी कालमें बंधे हों और पहिलेके सचामें विद्यमान समस्त ||६| है कर्मपरिणामोंकी विशुद्धतासे-संख्यातहजार सागरोपम घाटि अंतःकोडाकोडि सागर प्रमाण हो से गये हों उस समय प्रथम सम्यक्त्व की योग्यता होती है यह दूसरी कर्मस्थितिका नामकी काललब्धि है। एक भावकी अपेक्षा भी काललब्धि है उसका वर्णन आगे परिवर्तन प्रकरणमें किया जायगा। __ काललाब्ध यहांपर जो आदि शब्द दिया गया है उससे जातिस्मरण और जिनबिंब आदिके | || दर्शन आदिका ग्रहण किया गया है अर्थात् कर्ममलिन भी भव्य आत्माके जातिस्मरण वा जिनबिंब || | आदिके देखनेसे उक्त प्रकृतियोंके उपशमसे औपशामिक सम्यक्त्व होता है यह नियम है । जो जीव || | भव्य पंचेंद्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त और सर्व विशुद्ध (अनिवृत्तिकरणचरमसमयवर्ती) होगा वही प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है जिससमय आत्मा सम्यग्दर्शन प्राप्तिके उन्मुख हो जाता है उससमय AUGUSLUGUGUGREEKHABREACHEREREG SPERISPUBABASSADOS ५२५ A SREPUR
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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