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________________ १० ४ 46 उसी प्रकार जिस समय पर्यायार्थिक नयकी ओर ध्यान न देकर द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा रक्खी जाती है उस समय 'यह ज्ञान है वा यह दर्शन है' इसतरह पर्यायोंकी विवक्षा नहीं रहती किंतु 'अनादि पारिणामिक चैतन्यस्वरूप जीव द्रव्य है' यह विवक्षा रहती है क्योंकि अनादि पारिणामिक चैतन्यस्वरूप जीव द्रव्यको छोडकर ज्ञान दर्शन आदि रह नहीं सकते । जीवद्रव्यस्वरूप ही होने के कारण आत्मा ग्रहणसे उनका भी ग्रहण हो जाता है । इसलिये द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा ज्ञान दर्शन आदि परिणाम आत्मस्वरूप ही हैं परन्तु उन्हीं ज्ञानादिमें द्रव्यार्थिक नयकी ओर ध्यान न देकर जिससमय पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा की जाती है उस समय आत्मा द्रव्यकी विवक्षा नहीं रहती किंतु यह ज्ञान है यह दर्शन है इसतरह पर्यायोंकी विवक्षा रहती है क्योंकि ज्ञान पर्याय भिन्न और दर्शन पर्याय भिन्न है | ज्ञान, दर्शन नहीं कहा जाता और दर्शन, ज्ञान नहीं कहा जाता इसलिये पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा ज्ञान और दर्शन जुदे २ हैं । तथा ज्ञान दर्शन आदि पर्याय आत्मा के ही परिणाम हैं इसलिये वाह्यं और अभ्यंतर कारणों से जिस समय आत्मा, ज्ञान दर्शन आदि अपनी पर्यायस्वरूप परिणत होता है उस समय वह आत्मा ही ज्ञान और दर्शन स्वरूप कहा जाता है क्योंकि आत्मासे ज्ञान दर्शन आदि परिणाम' जुदे नहीं और ज्ञान दर्शन आदि परिणामोंसे आत्मा जुदा नहीं, विना आत्माके ज्ञान दर्शन आदि पर्यायें रह ही नहीं सकतीं । इसलिये परिणाम परिणमीकी जब अभेद विवक्षा रहती है तब आत्मा और ज्ञान दर्शन पर्यायें एक ही हैं किंतु पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा जिस समय पर्यायी आत्मा और पर्याय ज्ञान दर्शन आदि भिन्न २ माने जाते हैं उस समय आत्मा और ज्ञान दर्शन आदि पर्याय जुदे जुदे हैं १ पुस्तकादिका अवलोकन । २ ज्ञानावरण दर्शनावरणकी क्षयोपशमरूप शक्तिविशेष । भा‍
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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