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________________ व०रा० भाषा ४८७ HERBAR | इन्हें भी मानना पडेगा । इसलिये संरूपा व्यभिचारकी निवृत्तिके लिये दिया हुआ भी वैयाकरणोंका परिहार कार्यकारी नहीं । तथा 4 'एहि मन्ये रथनेत्यादि' यहाँपर ( 'मन्यसे' इस मध्यम पुरुषके स्थानपर 'मन्ये' यह उत्तमपुरुष अथवा ) युष्मद् शब्दके ( त्वं ) प्रयोग के स्थानपर अस्मद् शब्दका (अहं) प्रयोग दिया है । तथा (उत्तम पुरुष ' यास्यामि' 'एमि' की जगहपर मध्यमपुरुष 'यास्यसि' और एहि अथवा ) अस्मद् शब्द के. (अहं) प्रयोगकी जगह युष्मद् शब्दका (वं ) प्रयोग किया है इसलिये यहां साधन व्यभिचार है क्योंकि एक पुरुषकी जगह दूसरा पुरुष कह देना वा युष्मद् शब्दके प्रयोगकी जगह अस्मद् शब्दका प्रयोग वा अस्मद् शब्दकी जगह युष्मद् शब्दका प्रयोग कर देना साधन व्यभिचार है यह ऊपर कह दिया गया | है परन्तु वैयाकरण लोग 'प्रहासे मन्यवाचि युष्मन्मन्यतेरस्मदेकवच' इस सूत्रानुसार युष्मद् और अस्मद् शब्दके प्रयोगों को एक मानते हैं और इस तरह अभेद मानकर यहाँपर साधन व्यभिचारका परिहार करते हैं। परन्तु उनका वैसा मानना ठीक नहीं क्योंकि साधनके भेद रहते भी यदि पदार्थों को एक माना जायगा तो 'अहं पचामि त्वं पचास' यहाँपर भी युष्मद् अस्मद्रूप साधनों का भेद है इसलिये यहां पर भी एक मानना पडेगा फिर भिन्न भिन्न रूपसे जो दो प्रयोग होते हैं वे न हो सकेंगे इसलिये साधन व्यभिचारके दूर करनेके लिये जो वैयाकरणोंने समाधान दिया है वह अयुक्त है। तथा संतिष्ठते की जगह पर अवतिष्ठते कहना उपग्रह व्यभिचार है परन्तु वैयाकरणों का कहना है कि उपसर्ग केवल १ । प्रहासे मन्योपपदे मन्यतेरुत्तम एकवच | १|४|१०७ ॥ जिस धातुका उपपद मन्य धातु हो और हंसी अर्थ गम्यमान हो तो उस प्रकृतिभूत धातुसे मध्यम और मन्य धातुसे उत्तम पुरुष होता है । पाणिनीय व्याकरण । अध्याद Kad
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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