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________________ स०रा० भाषा ४६९ - वर्तमान- पर्यायका ग्रहण होता है, जितने अंशोंमें वर्तमान पर्यायका ग्रहण है उतने ही अंशों में ऋजु सूत्रनय को विषयता है इसीलिये कथंचित् पदसे कहा गया है। यहां पर विरोधादि बातों का खुलाशा । पच्यमान पक्कके समान है । तथा ऋजुसूत्रनयका विषय प्रस्थ भी है परंतु जिससमय अन्न आदि पदार्थ, सेर-माप द्वारा तुल रहा है | उसी समय प्रस्थः ऋजुसूत्रनयका विषय हो सकता है परंतु जिससे धान्य तुल चुका अथवा आगे जाकर तुलेगा वह ऋजुसूत्रनयका विषय नहीं हो सकता क्योंकि जो तुल चुका वह भूतकालका विषय है । जो आगे तुलेगा वह भविष्यत् कालका विषय है । भूतकालकी पर्याय और भविष्यत्कालकी पर्याय ऋजुसूत्र का विषय है नहीं, किंतु वर्तमानकालकी एक समयवर्ती पर्याय ही उसका विषय है इसलिये भूतकाल वा भविष्यत् कालकी अपेक्षा होनेवाला प्रस्थरूप ऋजुसूत्रनयका विषय होना असंभव है । तथा कुंभकारका अभाव ऋजुसूत्रनयका विषय है क्योंकि कुंभको करनेवाला कुंभकार कहा जाता है। जिससमय कुंभकार पुरुष कुंभ-घडा, न बनाकर उसकी शिविक छत्रक आदि पर्याय बना रहा है उस समय वह ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा घडाका बनानेवाला नहीं कहा जा सकता क्योंकि शिविक छत्रक आदि पर्यायोंके आगे जाकर घट पर्याय बननेवाली है इसलिये भविष्यतकालका विषय है; वर्तमान कालका नहीं एवं जिससमय वह घडा बना रहा है उससमय घटकी उत्पत्ति उसके खास अवयवोंसे हो रही है और वही शुद्ध वर्तमानकाल ऋजुसूत्रनयका विषय है किंतु उससमय कुंभकार कुछ नहीं कर रहा है इसलिये ऋजुसुत्रनयका विषय कुंभकार नहीं हो सकता किंतु कुंभकारका अभाव उसका विषय है । तथा अभ्यान ४६९
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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