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________________ FACOBREPROBABURSTURBISALCURRORE हो चुका और आगामी कालका द्रव्य अभी उत्पन्न नहीं अतः उसका व्यवहार नहीं हो सकता इस लिये कारण और कार्य दोनों नामोंको धारण करनेवाले उस वर्तमान कालीन पर्याय हीको पर्यायार्थिक नय विषय कर सकता है। द्रव्यको नहीं। अथवा 'अर्थन; अर्थः-प्रयोजनं अर्थ शब्दका अर्थ प्रयोजन. है जिस नयका प्रयोजन द्रव्य ही हो वह द्रव्याार्थक नय है क्योंकि संसारमें जो द्रव्यकी प्रतीति होती है, जो नाम है एवं द्रम्पके अनुकूल प्रवृत्ति रूप चिह्न हैं उनका लोप नहीं हो सकता। अर्थात् द्रव्यका ज्ञान, द्रव्य संज्ञा और द्रव्यमें प्रवृचि इन चिन्होंसे देखे जानेवाले द्रव्य का अपलाप-अभाव नहीं कहा जा सकता। तथा जिस नयका प्रयोजन पर्याय ही हो वह पर्यायार्थिक नय है क्योंकि केवल पर्यायको विषय करने के कारण शब्द और ज्ञानकी निवृत्ति और प्रवृत्तिके आधीन जो व्यवहार है उसकी प्रसिद्धि है अर्थात् मृत पिंडसे घट पर्यायकी उत्पत्ति होती है इसलिये मृत पिंड रूप शब्द और उसके ज्ञानकी निवृत्ति एवं घट शब्द और उसके ज्ञानकी प्रवृचिरूप जो व्यवहार है वह होता है । यदि पर्यायको विषय करने वाला पर्यायार्थिक नय न हो तो संसारसे घट पट मठ पुत्र पिता आदि व्यवहारोंका लोप ही हो जाय । इस प्रकार यह द्रव्याथिक और पर्यायार्थिकके भेदसे जो दो नयोंके मूल भेद कहे थे उनका विवेचन हो चुका । नैगम आदि जो सात प्रकारके नय ऊपर कहे गये हैं वे द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिकके ही भेद हैं। अब नैगम आदिके विशष लक्षणोंका वर्णन किया जाता है अर्थसंकल्पमात्रगाही नैगमः ॥२॥ नि उपसर्गपूर्वक गम् धातुसे अच् प्रत्यय करने पर निगम शब्द बना है और निगम शब्दसे कुशल १ अनभिनिचार्यसंकरपमात्रमाही नैंगमः । सबोथेसिदि पृष्ठ ७८। . BASGEEGE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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