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अध्याय
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| भी आत्मा नहीं जहाँपर दोनों एक साथ न रहें इसलिये जहांपर मतिज्ञानका उल्लेख होगा वहांपर १०रा०
श्रुतज्ञानका भी ग्रहण होगा और जहाँपर श्रुतज्ञानका ग्रहण होगा वहाँपर मतिज्ञानका भी ग्रहण समझा भाषा
जायगा। यद्यपि आदि शब्दका समीप अर्थकर मतिज्ञानके समीपमें रहनेवाले श्रुतज्ञानको आदि लेकर'। ४२५| ऐसा अर्थ करनेपर मतिज्ञानका ग्रहण नहीं होता तथापि श्रुतज्ञानके ग्रहणसे मतिज्ञानका भी साहचर्य
| सम्बंधसे वहांपर ग्रहण है इसलिये मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको आदि लेकर एक साथ एक आत्मामें चार S|| ज्ञान तक रह सकते हैं ऐसे अर्थके मानने में कोई आपचि नहीं। शंका
ततोऽन्यपदार्थे वृत्तावेकस्यादिशब्दस्य निवृत्तिरुष्ट्रमुखवत् ॥५॥ एकादिरादिर्येषां तानीमान्येकादीनि एकादिको आदि लेकर जो ज्ञान हैं वे एकादि कहे जाते हैं, है। यह यहां पर जो बहुव्रीहि समास है उसमें दो आदि शब्दोंका उल्लेख है इसलिये समस्त पदमें भी दो | आदि शब्द रहने चाहिये अर्थात् 'एकाद्यादीनि' ऐसा समस्त पद होना चाहिये ? सो ठीक नहीं है। | उष्ट्रस्य मुखं उष्ट्रमुखं, उष्ट्रवन्मुखं यस्येति उष्ट्रमुखं अर्थात् जिसका मुख ऊंट सरीखा हो वह उष्ट्रमुख | पुरुष कहा जाता है और जिसका मुख ऊंटके मुखवाले पुरुष सरीखा हो वह भी उष्ट्रमुख ही कहा जाता है, यहां पर जिसतरह उष्ट्रमुख शब्दका बहुव्रीहि समास करते समय दो मुख शब्दोंका उल्लेख रहता | है और समस्त पदमें एक ही मुख शब्द रह जाता है एक मुख शब्दकी निवृत्ति हो जाती है उसीतरह | 'एकादीनि' यहां पर भी दो आदि शब्दोंमें एक ही आदि शब्द रह जाता है एक आदि शब्दकी निवृत्ति हो जाती है।
अवयवेन विग्रहः समुदायो वृत्त्यर्थः ॥ ६॥
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