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________________ त०रा० भाषा ४१९ हा वृद्धि रूप अनंत विकारोंके साथ तथा स्वप्रत्यय - अपनेसे ही होने वाले और परप्रत्यय-दूसरे निमित्तों से होनेवाले, गति कारणत्व विशेष आदि धर्मो के साथ आपसमें एक जगह रहनेके कारण विरोधरहित हैं और एक जंगह न रहनेके कारण विरोधसहित भी हैं । उपर्युक्त घर्मो में बहुतसे औदयिक आदि धर्म द्रव्य क्षेत्र काल और भावरूप कारणांस उत्पन्न होते हैं इसलिए उपाच हेतुक - सकारणक है, और जिनका कभी भी विकार नहीं हो सकता - चेतनसे अचेतनरूप नहीं परिणत हो सकते, ऐसे पारिणामिक | चैतन्य आदि भावों का कोई भी उत्पादक कारण नहीं इसलिए वे अनुपाचहेतुक - अकारणक हैं इसप्रकार उन उपात्तहेतुक और अनुपात्तहेतुक विरोधी अविरोधी धर्मोके आत्मलाभ-व्यवहार में निमित्त कारण | दूसरे दूसरे शब्द हैं इसीलिए यह चेतन है यह नारकी वा बालक है यह व्यवहार होता है इस रीतिसे जो द्रव्यके अवस्था विशेष - धर्म द्रव्यार्थिक नयके विषय न होकर पर्यायार्थिक नयके विषय हैं और व्यवहार ऋजुसूत्र और शब्द नयसे जिनका संसार में व्यवहार होता है उन धर्मोका ही नाम पर्याय है। तयोरितरेतरयोगलक्षणो द्वंदः ॥ ५ ॥ सूत्र में जो 'द्रव्यपर्याय' शब्द है उसका 'द्रव्याणि च पयायाश्च द्रव्यपर्यायाः" यह इतरेतरयोग नामका द्वंद्व समास है । शंका इंद्धेऽन्यत्वं लक्षन्यग्रोधवदिति चेन्न तस्य कथंचिद्भेदेपि दर्शनात् गोत्वगोपिंडवत् ॥ ६ ॥ जो पदार्थ आपस में भिन्न होते हैं उनका इतरेतर योग द्वंद्व समास होता है जिसतरह 'लक्षश्र न्यग्रोधश्च लक्षन्यग्रोध' यहाँपर लक्ष और न्यग्रोध दोनों भिन्न भिन्न पदार्थ हैं इसलिए इनका आपस में इतरेतर योग द्वंद्व समास है । द्रव्य पर्याय शब्दमें भी इतरेतर योग द्वंद्व माना है इसलिए द्रव्य और अध्याय ४१९
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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