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अध्याय
तरा भाषा
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|वह ठीक नहीं। जिन प्रत्ययोंकी कृत्य संज्ञा है वे बहुलतासे होते हैं । कर्ममें ही होते हैं यह नियम नहीं है इसलिये बहुलताकी अपेक्षा कर्ता अर्थमें भी द्रव्य शब्द साधु है।
कथंचिहेवसिद्धौ तत्कर्तृकर्मव्यपदेशसिद्धिः॥२॥ इतरथा हि तदप्रसिद्धरत्यंताव्यतिरेकात् ॥ ३॥ का द्रव्य और पर्यायोंमें कथंचित् भेद माननेसे ही कर्ता और कर्मकी व्यवस्था है। यदि उनमें सर्वथ। है अभेद ही माना जायगा तो सर्वथा अभिन्न द्रव्य पर्यायोंमें कर्ता कर्मकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी है क्योंकि सर्वथा विशेषरहित अभिन्न ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं जो विना किसी अन्य शक्तिका अवलंबन
किये कर्ता और कर्म कहाया जा सके। द्रव्य और पर्यायों में कर्ता कर्मकी व्यवस्था इष्ट है इसलिये उस व्यवस्थाकी सिद्धि के लिए उनमें पर्यायार्थिक नयरूप शक्तिकी अपेक्षा कथंचित् भेद मानना ही होगा। अब पर्यायशब्दका विवेचन किया जाता हैमिथोभवनं प्रतिबिरोध्यविरोधिनां धर्माणामुपात्तानुपात्तहेतुकानां शब्दांतरात्मलाभनिमित्तत्वा
दर्पितव्यवहारविषयोऽवस्थाविशेषः पर्यायः ॥ ४ ॥ B. कुछ धर्म आपसमें एक जगह पर रहनेके विरोधी हैं और कुछ अविरोधी हैं तथा कुछ उपाच हेतुक का है और कुछ अनुपाच हेतुक हैं एवं जिनका आत्मलाभ-व्यवहार दूसरे दूसरे शब्दोंके आधीन है इस
रीतिसे अपने आत्मलाभमें दूसरे दूसरे शब्दोंकी अपेक्षा रखनेके ही कारण जिनका संसार में. व्यवहार है ऐसे द्रव्यके अवस्था विशेष-धर्मों का नाम पर्याय है । इसका खुलासा इस प्रकार है--
कुछ धर्म एक साथ नहीं रहते इसलिये वे आपसमें विरोधी हैं। अनेक एक साथ रहते हैं इसलिये
LASALAMUKULKASGAMESTER
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