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भाषा
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अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान के क्षेत्रका पहिले वर्णन किया जा चुका है। इसलिये विषय आगे कहेंगे।
अन्या अब स्वामीके विषयमें विचार करते हैं
विशिष्टसंयमगुणैकार्थसमवायी मनःपर्ययः॥२॥ मनापर्ययज्ञानका अविनाभाव विशिष्ट संयम गुणके साथ है । जहां पर विशिष्ट संयम होगा वहीं मनःपर्ययज्ञान होगा अन्यत्र नहीं । अन्यत्र उसका खुलासा इस रूपसे कहा गया है___मनःपर्ययज्ञानकी उत्पचि मनुष्योंके ही होती है देवें नारकी और तिर्यचोंमें नहीं होती। मनुष्यों में भी गर्भज मनुष्योंमें ही होती है संमूर्छनज मनुष्यों में नहीं होती। गर्भज मनुष्योंमें भी कर्मभूमिके मनुःहूँ ष्योंके ही होती है भोगभूमिके मनुष्योंमें नहीं हो सकती । कर्मभूमिके मनुष्योंमें भी छहौ पर्यापि पूर्ण होनेसे जो पर्याप्तक हैं उन्हीके होती है, अपर्याप्तकोंके नहीं। पर्याप्तकोंमें भी सम्यग्दृष्टियोंके ही वह उत्पन्न होता है मिथ्यादृष्टि सासदन सम्याग्मिथ्याहष्टि गुणस्थानवतियोंके नहीं। सम्यग्दृष्टियों में भी जो मनुष्य संयमी हैं उन्हींके होता है असंयत सम्यग्दृष्टि चतुर्थगुणस्थान और संयतासंयत पांचवें गुणस्थानवतियों के नहीं । संयमियोंमें भी छठे गुणस्थान प्रमचसे बारहवें क्षीणकपाय गुणस्थान पर्यंत संयमियोंके ही होता है । बारहवें गुणस्थानके आगेके गुणस्थानों में रहनेवाले संयमियोंके नहीं । छठे गुणस्थानसे बारहवें गुणस्थान तक होने पर भी जिनका चारित्र कषायोंकी दिनोंदिन मंदतासे दिनोंदिन वर्धमान है-बढने- १ वाला है उन्हींके होता है किंतु कषायोंकी उत्कटतासे जिनका चारित्रहीयमान है-मंद होता चला जाता है, उनके नहीं होता । प्रवर्धमान चारित्रवालोंमें भी सात प्रकारकी ऋद्धियोंमें जिनके कोई एक ऋद्धि होगी उन्हींके होता है किंतु जिनके कोई प्रकारकी ऋद्धि नहीं है उनके नहीं होता है । तथा प्रद्धि
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