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________________ अध्यार SSROORBASNEHRENERASHASTOTR और वर्गणाओंका समूह स्पर्धक कहा जाता है । वह स्पर्धक दो प्रकारका है एक देशघाती स्पर्धक दूसरा सर्वघाती स्पर्धक । जो गुणके एक देशको घातै वह देशघाती स्पर्धक है और जो सर्वदेशको पात | वह सर्वघाती स्पर्धक कहा जाता है तथा स्थितिको पूरीकर फल देना उदय है । विना ही फल दिये आत्मासे कर्मके संबंधका छूट जाना उदयाभावी क्षय है और वर्तमान समयको छोडकर आगामी काल ॥ में रदय आनेवाले कर्मोंका जो सत्तामें रहना है वह सदवस्थारूप उपशम कहा जाता है। अनंतानबंधी॥ क्रोध मान माया और लोभ ये चार प्रकृतियां चारित्र मोहनीयकी एवं सम्यक् प्रकृति, मिथ्यात्व और 8 सम्पग्मिथ्यात्व ये तीन प्रकृतियां दर्शनमोहनीयकी इसतरह ये सात प्रकृतियां सम्यक्त्व गुणकी विरोधी हूँ। ॥ हैं। इन सातोंमें क्रोधादिका अर्थ स्पष्ट है । तथा जिस कर्म के उदयसे सम्यक्त्व गुणका मूल घात तो हो | नहीं किंतु चल मल अगाढ आदि दोष उत्पन्न हो जाय वह सम्यक्त्व प्रकृति है। जिस कर्मके उदयसे जीवके अतत्त्व श्रद्धान हो वह मिथ्यात्व प्रकृति है और जिस कर्मके उदयसे ऐसे मिले हुए परिणाम हो जिन्हें न सम्यक्त्वरूप कह सकें और न मिथ्यात्वरूप कह सकें वह सम्यमिथ्यात्व प्रकृति है। उपर्युक्त all सात प्रकृतियोंमें अनंतानुबंधी-क्रोध मान माया लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये छह प्रकृतियां सर्वघाती हैं क्योंकि इनसे गुणके सर्वदेशका घात होता है और सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती है क्योंकि का वह गुणके अंशको घातती है अर्थात् उसके उदय रहनेपर गुणका घात नहीं होता किंतु वह कुछ दोष६ युक्त बन जाता है । इस रीतिसे जहाँपर अवधिज्ञानावरण कर्मके देशघाती स्पर्षक सम्यक् प्रकृतिका तो | उदय-स्थिति पूरी हो जानेपर फल देकर खिर जाना रहे, उक्त क्रोध आदि छह प्रकृतियोंके स्पर्धकोंका | उदयाभावी क्षय-विना ही फल दिए खिर जाना, रहे और आगामी कालमें उदय आनेवाले सर्वघाती AAAAAAS A SAE ४९
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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