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________________ रा० षा ८३ उतने ही संख्या प्रमाण भूत भविष्यत् वर्तमान त्रिकालवर्ती समयको अवधिज्ञान विषय करता है । | क्षेत्रक प्रदशोंकी संख्या प्रमाण ही असंख्यात भेदवाले अनंत प्रदेशोंके धारक पुद्गल स्कंधोंको विषय करता है और उतनी ही संख्या प्रमाण कर्म सहित जीवोंको विषय करता है । यह काल और द्रव्य hi अपेक्षा अवधिज्ञान विषयका निरूपण है तथा भावकी अपेक्षा अपने विषयभूत पुद्गल स्कंधों के रूप आदि भेदों को एवं जाव के परिणाम स्वरूप औदयिक औपशमिक और क्षायोपशमिकको भी विषय करता है | यहाँपर यह शंका नहीं करनी चाहिये कि अवधिज्ञानका विषय मूर्तिक पदार्थ है वह अमूर्तिक जीव व उसके परिणामोंको कैसे जान सकता है ? क्योंकि कर्म सहित जीवको वा कर्मके विकारस्वरूप उसके परिणामों को संसारावस्था में पानी आर दूधके समान एकम एक होनेसे पौगलिक - मूर्तिक ही माना | हैं | मूर्तिकको अवधिज्ञान विषय करता ही है इसलिये कोई दोष नहीं। ऊपर लिखे अनुसार नीचे की ओर ऊपर की ओर तिरछा इसप्रकार तीनों ओर द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षा देवो में अवधिज्ञान के विषयका निरूपण कर दिया गया । अब नारकियोंमें तीनों भागों की अपेक्षा अवधिज्ञानके विषय | का निरूपण किया जाता है नारकियों में योजन प्रमाण अवधिज्ञान सातवें नरकमें है आधा कोश घटते घटते पहले नरकमें एक कोश प्रमाण रह जाता है । रत्नप्रभा पहिली पृथिवी में नीचे की ओर अवधिज्ञानका विषय एक योजन प्रमाण है- एक योजनसे आगे के पदार्थोंको अवधिज्ञान नहीं जान सकता। दूसरी शर्करा पृथिवी १ | 'पणुवीस जोइणाई' इस ४२५ की गाथासे लेकर अवधिज्ञान प्ररूपया के अंततक अच्छीतरह गोम्मटसारजीमें इस विषयका वर्णन है। ল अध्य १ ३८
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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