SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ LACE का उत्पन्न करनेवाला वचन हो वह अरत्युत्पादक वचन है। जिस वचनके सुननेसे मनुष्यका चिच परि- तु अध्याय ग्रहोंके उपार्जन और रक्षण आदिमें आसक्त हो वह उपधिवचन है। जिस वचनको सुनकर वाणिज्य आदि व्यवहारोंमें मनुष्य ठगई आदिमें प्रवृत्त हो वह निकृतिवचन है। जिस वचनके सुननेसे आत्मा तपस्वी और विशेष ज्ञानियोंमें भी नम्रीभूत नहीं होता वह अप्रणति वचन है। जिस वचनके सुननेसे मनुष्यकी प्रवृत्ति चोरीमें हो वह मोषवचन है । जो सम्यक् मार्गका उपदेशक वचन है वह सम्यग्दर्शन वचन है और जिससे मिथ्यामार्गका उपदेश मिले वह मिथ्यादर्शन वचन है। दो इंद्रिय आदि जीव वक्ता है-बोलनेवाले हैं। क्योंकि उनके भाषा पर्याप्तिकी प्रकटता है। द्रव्य क्षेत्र काल और भावके आधीन हूँ झूठ अनेक प्रकारका कहा गया है। सत्य दश प्रकारका है नामसत्य १ रूपसत्य २ स्थापनासत्य ३ प्रतत्यिसत्य १ संवृतिसत्य ५ संयोजनासत्य ६ जनपदसत्य ७ देशसत्य ८ भावसत्य ९और समयसत्य १० वैसे गुणवाला पदार्थ न भी हो तो भी लोक व्यवहारकेलिये चेतन अचेतन द्रव्यका जो वैसा नाम रख देना है वह नाम सत्य है जिस प्रकार किसी पुरुषका इंद्र आदि नाम रख देना १ । असली पदार्थ तो न हो किंतु उसका रूप देख कर उसे वैसा ही मान लेना रूपसत्य है जिसतरह पुरुषकी अचेतन भी तस्वीरको पुरुष मान लेना।२। चाहै उसका आकार हो वा न हो तो भी व्यवहारकोलये किसी प्रसिद्ध वस्तुकी दूसरी वस्तु में स्थापना कर लेना स्थापनासत्य है जिसतरह सतरंज आदिमें गोटोंको हाथी घोडा आदि मान लेना'३। औप7 शमिक आदिभावोंकाशास्त्रानुसार व्याख्यान करना प्रतीत्यसत्य है।४।जो कार्य अनेक कारणोंसे उत्पन्न हो उन कारणों से लोक व्यवहारकी अपेक्षाएक किसी कारणका उल्लेख करना संवृतिसत्य है जिसतरह RECE - . .aNSLACSIRANCHCSPREET
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy