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। ग्रहण ही नहीं माना तब 'मैंने रूप देखा' 'मैंने गंध संघा' यह जो संसारमें व्यवहार होता है वह न होगा ? ) सो भी कहना अयुक्त है । जैनसिद्धांत में निश्चयनयकी अपेक्षा गुण गुणीका अभेद अर्थात् रूपादि गुणस्वरूप ही द्रव्य माना है इसलिये जब द्रव्यसे रूप आदिक अभिन्न हैं और जहां पर गुणगुणीकी अभेद विवक्षा है वहां पर गुणी ग्रहणसे गुण ग्रहणको विवक्षा एवं गुणग्रहणसे गुणी ग्रहणकी विवक्षा सब घट जाती है । फिर उपर्युक्त व्यवहार के होने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती । इसलिये 'अर्थस्व' इस सूत्र का बनाना निरर्थक नहीं, सार्थक है । शंका
तेषु सत्सु मतिज्ञानात्मलाभात्सप्तमीप्रसंगः॥ ३ ॥ नानेकांतात् ॥ ४ ॥
घटपट आदि विषयोंके रहने पर ही मतिज्ञान होता है, विना घट पटादिकी अवस्थितिके मतिज्ञान नहीं उत्पन्न होता इसलिये 'अर्थस्य' ऐसा षष्ठचंत सूत्र न कह कर 'अर्थे' यह सप्तम्यंत सूत्र कहना चाहिये ? सो ठीक नहीं । यदि घट पट आदि पदार्थोंके रहते मतिज्ञान माना जायगा तो जो बालक जमीन के भीतर बने हुए मकान में उत्पन्न हुआ है और ऊपर आते ही वह घट पट आदि पदार्थों को देखता है परंतु यह घट है यह पट है ऐसा मतिज्ञान उसे नहीं होता उसे भी मतिज्ञान होना चाहिये क्योंकि पदार्थ तो मौजूद हैं ही किंतु उसे वहां मतिज्ञान नहीं होता इसलिए पदार्थों के रहते ही मतिज्ञान होता है यह बात है । पदार्थ की उपस्थिति ज्ञानोत्पत्तिमें आवश्यक नहीं है उसके बिना भी ज्ञान होता है जैसा कि ऊपर बालकके दृष्टांत में कहा गया है. इसलिए अर्थस्य -यही ठोक - है अथवा जहां पर अधिकरणका निर्देश होगा वहीं सप्तमी विभक्ति होगी षष्ठी विभक्ति आदिके निर्देश में सप्तमी विभक्ति नहीं मानी जा सकती यह भी एकांत नहीं क्योंकि विवक्षाक्शाद्धि: कारकाणि भवति' 'बक्ताकी जैसी
अध्याय
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