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________________ रा०रा० भाषा ३११ का तो ग्रहण होगा नहीं फिर 'ये दो हैं' 'ये तीन हैं' इत्यादि व्यवहार ही संसारसे उठ जायगा ]. इसलिये कभी एक पदार्थको विषय करनेवाला विज्ञान नहीं माना जा सकता । तथासंतान संस्कारकल्पनायां च विकल्पानुपपत्तिः ॥ ८ ॥ यदि यह कहा जायगा कि हम एक पदार्थ के विषयको करने के लिये एक ज्ञानको ही मानें तब तो 'यह दो हैं' 'यह तीन आदि हैं' यह ज्ञान नहीं हो सकता किंतु यदि हम ज्ञानकी 'संतान' मानेंगे अथवा 'पहिला पहिला ज्ञान उत्तर उत्तर ज्ञानों में अपना संस्कार समर्पण करता जाता है' इस रूपसे संस्कार मानेंगे तब दो तीन आदि पदार्थोंका ज्ञान हो सकता है कोई दोष नहीं ? सो भी अयुक्त है क्योंकि वहां पर ये प्रश्न उठते हैं कि वे जो संतान और संस्कार हैं वे ज्ञानकी जातिके हैं कि अज्ञानकी जाति के हैं ? यदि अज्ञानकी जातिके मान कर उन्हें अज्ञानस्वरूप माना जायगा तब उनको माननेसे भी दो तीन आदि पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता इसलिये उन्हें अज्ञानस्वरूप मानना प्रयोजनीय नहीं । यदि ज्ञान की जातिका ज्ञानस्वरूप माना जायगा तब फिर वहाँपर यह प्रश्न मौजूद है कि वह संतान वा संस्कार एक अर्थ ग्रहण करनेवाले हैं वा अनेक अर्थ के ग्रहण करनेवाले हैं ? यदि एक ही अर्थको ग्रहण करनेवाले हैं यह अर्थ माना जायगा तो वैसे माननेमें जो अनेक दोष ऊपर कह आए हैं वे सब के सब फिर ज्योंके त्यों यहां लागू होंगे। यदि अनेक पदार्थों को ग्रहण करनेवाले हैं यह अर्थ माना जायगा तब 'एक ज्ञान एक ही पदार्थका ग्रहण करनेवाला है' यह बौद्धका प्रतिज्ञावचन बाधित हो जाता है । इस रीति से मानुसार 'ज्ञान एकार्थग्राही है वा अनेकार्थमा ही है' यह कोई प्रकार सिद्ध नहीं होता और युक्ति एवं अनुभव से वह अनेकार्थग्राही ही सिद्ध होता है तब उसे अनेक पदार्थों का ग्रहण करनेवाला ही मानना चाहिये। अध्यान १ ३११
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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