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________________ १ RAKESHREE RECENERGREENSHAKAAREEKRAEBAREE नेत्र इंद्रियकी अपेक्षा है परंतु जिसतरह नेत्र इंद्रियसे अवग्रह आदिका क्रम माना है उसीतरह कान नाक जीभ आदि इंद्रियों से भी समझ लेना चाहिये क्योंकि नेत्रजन्य अवग्रहादि ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम . जुदा है और श्रोत्र आदि जन्य अवग्रहादि ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम जुदा है । इप्सप्रकार भिन्न भिन्न आवरण कयों के क्षयोपशमके भेदसे अवग्रह आदि ज्ञानावरण कर्मका भेद है। यहॉपर यह शंका है न करनी चाहिए कि ज्ञानावरण प्रकृतिके तो मतिज्ञानावरण आदि पांच ही भेद माने हैं, नेत्रजन्य अवग्रहावरण आदि भेद कहांसे गढ लिए गये । क्योंकि मतिज्ञानावरण आदि पांच जो ज्ञानावरण कर्मकी कै प्रकृतियां मानी हैं उनके भी उत्चरोचर बहुतसे भेद हैं । इसी बातका पोषक आगमका भी यह वचन है हूँ कि-'ज्ञानावरणस्योचरप्रकृतयःअसंख्यलोकाः' अर्थात् ज्ञानावरण कर्मकी उत्तर प्रकृतियां असंख्याती है है इस गीतसे पांचों इंद्रियां और मनके अवग्रह आदि भेद हैं। यह बात निश्चित हो चुकी । शंका-- हूँ ___ जो ज्ञान इंद्रिय और मनसे हो वह मतिज्ञान है ऐसा ऊपर कह आए हैं। अवग्रह ज्ञान तो मति है ज्ञान कहा जा सकता है क्योंकि वह इंद्रिय और मनसे उत्पन्न होता है परन्तु ईहा आदि ज्ञान मतिज्ञान है नहीं कहे जा सकते क्योंकि ईहा आदि ज्ञान साक्षात् इंद्रिय और मनसे नहीं होते किंतु अवग्रहसे ईहा, ६ ईहासे अवाय, और अवायसे धारणा ज्ञान होता है इसलिये ईहादि ज्ञानको मतिज्ञान मानना अयुक्त है ? हूँ सो ठीक नहीं। ईहा आदि ज्ञानोंमें न भी साक्षात् इंद्रियां कारण पडें तो भी मन तो साक्षात् कारण है 4 ही क्योंकि विना मनका आश्रय किये ईहादि ज्ञान नहीं हो सकते इसलिये ईहादि ज्ञानकी मनसे उत्पत्ति * होने के कारण उन्हें मतिज्ञान के भेद मानने में कुछ भी आपचि नहीं। यदि यहॉपर यह कहा जाय कि यदि मनसे उत्पन्न होनेमात्रसे ईहादिको मतिज्ञान माना जायगा तो मनसे तो श्रुतज्ञानकी भी उत्पचि , - PO90015ISHASU ALURERESTHA
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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