SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रा०रा० भाषा ३०१ अंगोपांग नामक नाम कर्मके बलसे 'यह रूप है' 'वा पुरुष है' इसप्रकारकी ज्ञानमें जो विशेषताका प्रगट हो जाना है वह अवग्रह है इसरीतिसे काल और कारणों के भेदसे जब दर्शन और अवग्रह में भेद है तब वे दोनों कभी एक नहीं हो सकते। यदि यहां पर यह शंका की जाय कि जन्मते बालकका जो पदाथको देखना है जिसको कि दर्शन माना है वह तो अवग्रह ज्ञानकी जातिका है इसलिए वह ज्ञान ही होगा दर्शन नहीं कहा जा सकता ? तो वहां पर यह प्रश्न उठता है कि जिस दर्शनको अवग्रहका सजातीय होनेसे तुम ज्ञान कहना इष्ट समझते हो वह ज्ञान मिथ्याज्ञान है या सम्यग्ज्ञान ? यदि उसे मिथ्याज्ञान माना जायगा तब भी वहां यह कहा जा सकता है वह संशय नामका मिथ्याज्ञान है वा विपर्यय और अनध्यवसाय नामका है ? संशय और विपर्यय नामका तो मिथ्याज्ञान नहीं कहा जा सकता क्योंकि दर्शनको सम्यग्ज्ञानका कारण माना है । सम्यग्ज्ञानका कारण मिथ्याज्ञान नहीं हो सकता । तथा दर्शनके वाद अवग्रह और उसके बाद संशय विपर्ययका होना माना गया है। दर्शन संशय और विपर्ययसे पहिले होनेवाला है इसलिये वह संशय और विपर्ययस्वरूप नहीं माना जा सकता । यदि उसे अनध्यवसाय नामका मिथ्याज्ञान माना जायगा तो भी बाधित है क्योंकि जात्यंध पुरुषको सामने रक्खे हुए पदार्थका यद्यपि रूप नहीं जान पडता तो भी 'कुछ है' ऐसी उसे प्रतीति रहती है । वहिरा कुछ सुन नहीं सकता तब भी 'कुछ कह रहा है' ऐसी उसे प्रतीति रहती है इसीप्रकार दर्शन में 'कुछ है' ऐसी वस्तुसामान्यकी प्रतीति रहती है परंतु अनध्यवसाय ज्ञानमें किसीप्रकार की प्रतीति नहीं रहती इसलिये दर्शन कभी अनध्यवसाय रूप मिथ्याज्ञान नहीं हो सकता । यदि कदाचित् अवग्रहसे पहिले होनेवाले दर्शनको १ दंसणपुन्नं या छदमत्वाणं • द्रव्यसंग्रह | ३०१ मध्याय R
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy