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________________ अध्याय FEBSIBHABISISRORSHIRSASRHERE | न माननेपर विज्ञान पदार्थ भी सिद्ध न होसकेगा क्योंकि घट पट आदि ज्ञेय पदार्थोंके अभावमें विज्ञान है किनका होगा ? इस रीतिसे जब यथार्थरूपसे एक मात्र विज्ञानकी सिद्धि न हो सकी तब निर्विकल्प (अवक्तव्य ) वादियोंका कहना है कि हमें भी यही वात सिद्ध करनी थी कि संसारमें निर्विकल्पताके ||२|| सिवा कोई पदार्थ नहीं है सो विना किसी कष्ट और प्रयत्नके उक्त तर्क प्रणाली सिद्ध हो गयी। इसलिये | घरमें रत्नवृष्टि होनेसे जिसप्रकार परमानंद होता है उसी तरह विना किसी प्रयत्नके हमारे आभिमतकी ||७|| सिद्धि हो जानेपर हमें भी आनन्द है। अतएव जिसमें किसी भी विकल्प-भेदका उदय नहीं हुआ है । ऐसे निर्विकल्पक पदार्थको विषय करनेवाले निर्विकल्पक विज्ञानको प्रमाण मानना ही ठीक है जैसा | कहा भी है शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदैरविद्यैवोपवर्ण्यते। .. ... अनागमविकल्पा हि स्वयं विद्या प्रवर्तते ॥ १॥ इति शास्त्रोंमें जो विज्ञानको प्रक्रियाका भेद बतलाया है वह सब अविद्या है शास्त्रीय विकल्पोंसे रहित । विद्याकी तो स्वयं प्रवृत्ति है। इसलिये निर्विकल्पक विज्ञानमात्र तत्वके माननेमें कोई दोष नहीं ? सो भी। अयुक्त है । निर्विकल्पक विज्ञान ही संसारके अंदर है इस वातका निश्चय करानेवाला कोई प्रमाण नहीं। कहा भी है । प्रत्यक्षबुद्धिः क्रमते न यत्र तलिंगगम्यं न तदलिंगं । वाचो न वा तद्विषयेण योगः का तद्गतिः कश्मशृण्वतस्ते ॥१॥। १ युक्तयनुशासन श्लोक २२ । 'कष्टमशृयवतां ते यह भी पाठ है । FECEORGASCARSRECORRRRECRECEBGRESGRRERSIAS
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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