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________________ अध्याय १ : पना सिद्ध है तब आये परोक्ष' इस सूत्रमें आद्य शब्दसे मति और श्रुत ही ग्रहण किया जा सकता है है और वे ही परोक्ष कहे जा सकते हैं किंतु अवधि आदिका न ग्रहण हो सकता है और न वे परोक्ष कहे ) जा सकते हैं। अथवा श्रुतज्ञानका जो अर्थ है उसकी अपेक्षा श्रुतज्ञानको ही समीपता है क्योंकि श्रुतज्ञान को मतिपूर्वक माना है विना मतिज्ञानके श्रुतज्ञान नहीं हो सकता। इसरीतिस भी जव मतिज्ञानके 8 ; समीप श्रुतज्ञान ही है तब मतिज्ञानके साथ उसीका ग्रहण हो सकता है अवधि आदिका नहीं इसलिये 'आद्ये परोक्षं' इस सूत्रमें आद्य शब्दसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका ही ग्रहण युक्तिसिद्ध है अवधि आदिका नहीं। उपात्तानुपात्तपरपाधान्यादवगमः परोक्षं ॥६॥ उपात्त शब्दसे यहांपर इंद्रिय और मनका ग्रहण है । अनुपात्त शब्दसे प्रकाश और उपदेश आदि । लिया गया है । जो ज्ञान अपने होने में इंद्रियां मन प्रकाश और उपदेश आदिकी प्रधान रूपसे अपेक्षा रखता है वह परोक्ष कहा जाता है । खुलासा रूपसे तात्पर्य इसका यह है कि जिस मनुष्यमें गमन कर. 5 नेकी शक्ति तो है परंतु यष्टि आदिका सहारा विना लिये वह गमन नहीं कर सकता इसलिये जिसतरह । यष्टि आदिक उसके गमनमें प्रधानरूपसे सहकारी माने जाते हैं उसीप्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञा है। नावरण कर्मके क्षयोपशमसे जिप्त आत्मामें जाननेकी तो शक्ति है परंतु इंद्रिय आदि उपर्युक्त कारणोंकी १ सहायता विना वह पदार्थों के ज्ञानमें असमर्थ है-जान नहीं सकता उसके ज्ञानमें भी इंद्रिय आदिक P प्रधान सहकारी हैं इसनीतिसे अपनी उत्पचिमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इंद्रिय और मन आदिकी अपेक्षा क रखनेके कारण पराधीन हैं इसीलिये दोनों परोक्ष हैं। SENSAACAREERA-SANSAREFRESS २५८
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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