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हूँ | सकता क्योंकि वह एक ही पदार्थमें कुछ विशेषता लीये जानता है। एक पदार्थको छोडकर अन्य पदार्थ
है का ज्ञान वहांपर नहीं होता । अथवा२३९ || जिस घटका इंद्रिय और मनके द्वारा यह निश्चय हो चुका है कि 'यह घट है उसमें उसके भेदोंका
ज्ञान करना कि अमुक घट अमुक रंगका और अमुक घट अमुक रंगका होता है वा अमुकघट मिट्टीका 5] तो अमुक घट पीतल तांवा आदिका होता है इसतरह इंद्रिय और मनके द्वारा घटका निश्चय कर उस || | के भेद प्रभेदोंका जाननेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहा जाता है। ईहामें यह विशेषता नहीं किंतु जिस एक ||४|| | पदार्थको अवग्रहने जाना है उसीको कुछ विशेषतासे ईहा ज्ञान जानता है उस पदार्थके भेद प्रभेदोंको छ। नहीं । अथवा
इंद्रिय और मनसे यह जीव है और यह अजीव है ऐसे निश्चयके वाद जिस ज्ञानसे सत् संख्या क्षेत्र है| स्पर्शन काल अंतर भाव और अल्पबहुत्व आदिके द्वारा उनका स्वरूप जाना जाता है वह श्रुतज्ञान है |
क्योंकि सत् संख्या आदिके द्वारा कहे जानेवाला विशेष स्वरूप इंद्रिय और मनके निमिचसे नहीं हो । सकता इसलिये वह मतिज्ञानका विषय नहीं कहा जा सकता किंतु वह श्रुतज्ञानहीका विषय है । जीव ||
और अजीवके जान लेनेके बाद उनके सत् संख्या आदि विशेषोंका ज्ञान केवल मनकी-सहायतासे ही | होता है। ईहा ज्ञानमें इसप्रकार एक पदार्थके ज्ञानके बाद अन्य पदार्थ वा उसके विशेषोंका ज्ञान नहीं हो सकता इसलिये ईहा ज्ञान कभी श्रुतज्ञान नहीं कहा जा सकता । यदि यह शंका की जाय कि
श्रुत्वावधारणाच्छूतमिति चेन्न मतिज्ञानप्रसंगात् ॥ ३३ ॥ सुनकर जिसके द्वारा निश्चय किया जाय वह श्रुत है ऐसा कोई लोग श्रुतज्ञानका लक्षण मानते हैं
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