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________________ भापा है जिस तरह चावलोंमें विकृत होनेकी शक्ति है इसलिये उसमें सीझना आदि भाव हो सकते हैं और 'पचनं पाक' पकना ही पाक है यह कहा जाता है किंतु जिसमें विकृत होनेकी शक्ति नहीं है उनमें भाव-विकार उत्पन्न नहीं हो सकता जिसतरह आकाश निर्विकार पदार्थ माना है इसलिये उसमें किसी प्रकारका विकार नहीं हो सकता। सांख्यमतमें पुरुषको विक्रियारहित निर्विकार माना गया है इसलिये हूँ उसके ज्ञानमें भावरूप परिणामकी उत्पत्ति नहीं हो सकती किंतु वह जैसाका तैसा ही रहेगा इस रीतिसे हूँ ज्ञानको भावसाधन नहीं कहा जा सकता। तथा जो प्रमाण होता है वह अज्ञानकी निवृत्ति आदि फलोंसे युक्त होता है। ज्ञानको प्रमाण माना गया है उसका भी कोई न कोई फल अवश्य होना चाहिये परन्तु ज्ञानके सिवाय और दूसरा कोई फल अन्य हो नहीं सकता और जिस ज्ञानको प्रमाण माना है यदि वही फल भी हो तो यह वात भी विरुद्ध है इसलिये परमत में ज्ञानको प्रमाण मानना भी युक्त नहीं जान पडता। यदि उससे अन्य दूसरा ज्ञान माना जायगा और पहिला ज्ञान उसका फल माना जायगा ? सो भी अयुक्त है क्योंकि वह फल आत्माका होगा ज्ञानका नहीं। परन्तु आत्माको भी निष्क्रिय माना है इसलिये वह फल आत्मामें भी नहीं हो सकता इस रीतिसे है ज्ञान भावसाधन माना ही नहीं जा सकता । यदि यह कहा जायगा कि जाननारूप जो अधिगम है है उसे प्रमाण न मानकर फल ही मान लिया जायगा और उस फलमें प्रमाणका उपचार कर लिया जायगा * अर्थात् उपचारसे उस फल हीको प्रमाण मान लिया जायगा कोई दोष नहीं ? सो भी अयुक्त है क्योंकिविना मुख्यके उपचार नहीं हो सकता। प्रमाण मुख्य है इसलिये उसके विना जाननारूप फल नहीं हो । २२० सकता। यदि यहांपर भी यह कहा जाय कि आकारके भेदसे जाननारूप अधिगममें प्रमाण और फल PAGRECRUIRIESEKASI
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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