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अपेक्षाभावात् ॥ १३ ॥
देवदत्त के हाथमें रहनेवाला परशु, ऊपरको उठना नीचेको पडना रूप देवदच द्वारा की जानेवाली क्रियाओं की अपेक्षा रखता है बिना इन क्रियाओंकी अपेक्षा किए परशु अपना काम नहीं कर सकता इसलिए वह करण कहा जाता है। ज्ञान कर्ता आत्मा द्वारा की जानेवाली किसी क्रियाकी अपेक्षा नहीं करता क्योंकि आत्मा निष्क्रिय है किसी प्रकारकी उसमें क्रिया नहीं मानी गई इसलिए वह करण नहीं कहा जासकता ।
तत्परिणामाभावात् ॥ १४॥
जिससमय देवदत्त छेदनरूप क्रियासे परिणत होता है उससमय उसके संबंध से छेदन क्रियामें प्रवृत परशु करण माना जाता है । नैयायिक और वैशेषिकोंके मतमें आत्मा निष्क्रिय है उसमें किसी प्रकार की क्रियाका संबंध माना नहीं इसलिए वह ज्ञानरूप क्रियासे परिणत हो नहीं सकता । आत्माको ज्ञानरूप क्रिया परिणत हुए बिना ज्ञान करण नहीं कहा जासकता । इसलिए आत्माका सद्भाव माननेपर भी वह निष्क्रिय और ज्ञान गुण सर्वथा उससे भिन्न माना जायगा तो ज्ञान, करण आदि नहीं कहा जा सकता । तथा-
अर्थातरत्वे तस्याज्ञत्वात् ॥ १५ ॥
संसारमें यह बात दीख पडती है कि जो पदार्थ ज्ञानसे भिन्न माना जाता है वह जड कहा जाता है जिसतरह घट पट आदि द्रव्य ज्ञानसे भिन्न हैं इसलिए वे जड हैं । यदि आत्माको भी ज्ञानसे सर्वथा भिन्न माना जायगा तो वह भी जढ कहा जायगा चेतन नहीं कहा जासकता । यदि यह कहा जाय कि
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