________________
RSHASTRIBHASHASTRESCRIBERSHABAR
... अव्यभिचारात्सर्वमूलत्वाच्च तस्यादौ वचनं ॥२॥ ___ 'जो पदार्थ सब जगह पाया जाता है वह व्यापक कहा जाता है, व्यापक होने पर यदि वह कहीं में पाया जाय और कहीं नहीं, तो वह व्यभिचारदोषसे दूषित माना जाता है। आकाश पदार्थ सर्वत्रपाया | * जाता है इसलिए वह व्यापक है । रूप आदि गुण वा ज्ञान आदि गुण किसीमें पाये जाते हैं किसीमें * नहीं पाये जाते अर्थात् रूप आदि गुण पुद्गलमें ही पाये जाते हैं अन्य द्रव्योंमें नहीं। ज्ञान आदि गुण 9 आत्मामें ही पाए जाते हैं पुद्गल आदिमें नहीं, इसलिए रूप आदि गुण वा ज्ञान आदि गुण व्यापक % नहीं, इसीतरह हलन चलनरूप क्रिया जीव और पुद्गलोंमें ही है धर्म अधर्म आदि द्रव्योंमें नहीं इसलिये
सर्वत्र न पाये जानेके कारण वह भी व्यापक नहीं। अस्तित्व जिसको सत्चा कहते हैं हरएक पदार्थमें पाया है। जाता है। ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं जिसमें सत्ता न पाई जाय, इसलिए समस्त पदार्थों में रहने के कारण सचा पदार्थ व्यापक है। यदि वह किसी पदार्थमें रहेगा और किसी न रहेगा इस रूपसे व्यभिचरित होगा तो न वह वचनका विषय ही हो सकेगा और न उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहाया जा सकेगा। तथा । जो पदार्थ विचार करने के योग्य हैं उन सबका मूल कारण सत्ता है। जिन पदार्थों की सत्ता निश्चित है | उन्हींका विचार किया जा सकता है किंतु जिनकी सचा निश्चित नहीं, जिसतरह गधेके सींग, बाँझका लड़का आदि उनका किसी प्रकारसे विचार नहीं हो सकता। इस रीतिसे समस्त पदार्थों में रहनेके कारण और समस्त पदार्थोंकी विद्यमानता वा उन्हें विचारके योग्य बनानेमें कारण सत्ता है, इसलिए सत् संख्या आदिमें सबसे पहिले सत् शब्दका पाठ रक्खा है।
सतः परिणामोपलब्धेः संख्योपदेशः॥३॥
BAHURESUGARCASSALSAGARLOCKNOR
A