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________________ है। निश्चयनयसे आकाशका आकाश ही आधिकरण है और व्यवहारनयसे घटाकाशका अधिकरण घट मठाकाश आदिका अधिकरण मठाकाश आदि हैं । निश्चयनयसे आकाशद्रव्यकी स्थिति अनादि अनंत है । और व्यवहारनयकी अपेक्षा जिस पदार्थकी एक समयकी स्थिति है उसके नष्ट हो जानेपर उसके भीतर ङ्ग रहनेवाला आकाश भी नष्ट हो जाता है इसलिये उसकी भी एक समयकी स्थिति है इसी तरह दो समय हूँ आदि भी स्थिति समझ लेनी चाहिये । इसप्रकार जीव पुद्गल आदि छहों द्रव्योंके निर्देश आदिका हूँ निरूपण कर दिया गया अब सात तत्त्वोंके निर्देश आदिका निरूपण करते हैं । सात तत्वोंमें जीव अजीवके निर्देश आदिका निरूपण हो चुका आस्रव आदिका निरूपण इसप्रकार है शरीर वचन और मनकी क्रियाका नाम योग है और उस योगको आस्रव कहते हैं इसप्रकार आगे आस्रवका स्वरूप बतलाया गया है इसलिये निश्चयनयसे तो शरीर वचन और मनकी क्रियाओंका परिणमन होना आस्रव है और व्यवहारसे आस्रवका नाम वा स्थापना आदि आस्रव है । आस्रवका ६ स्वामी निश्चयनयसे जीव है और व्यवहारनयसे कर्म स्वामी है क्योंकि आस्रवकी उत्पचिमें कर्म भी हूँ कारण है । शुद्ध आत्माके आसूव नहीं होता इसलिये निश्चयनयसे तो आसूवका कारण आसूव वा है आसूवविशिष्ट आत्मा है और कर्मोंके होनेपर आसूवकी प्रवृचि होती है इसलिये व्यवहारनयसे आसूब का कारण कर्म भी है । संसारी आत्मामें आसूवका फल जान पडता है इसलिये निश्चयनयसे तो आसवका अधिकरण संसारी आत्मा है और कर्ममें वा कर्मद्वारा किये गये शरीर आदिमें भी आसूवका फल दीख पडता है अर्थात् शुभकर्मके आसूवसे उत्तम शरीर और अशुभ कर्मके आसूवसे निंदित रोग आदिका १ कायवाङ्मनः कर्म योगः॥१॥ स श्रास्रवः ॥२॥ अध्याय ६ तत्वार्थसूत्र । PORIERRECAURIGANBADRISTRINSTAGR959598 १९०
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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