________________
००
१८२
1961
वा. सम्यग्दर्शन आदिका अधिगम होता है' यह षष्ठी विभक्तिकी अपेक्षा अर्थ किया गया है । तथा ऊपरके सूत्रों में षष्ठी विभक्त्यंत जीव आदि वा सम्यग्दर्शन आदिका उल्लेख है नहीं, यदि प्रथमा विभ त्यंत जीव आदिकी अनुवृत्ति कर भी ली जाय तो प्रथमा विभक्तिकी अपेक्षा यहां अर्थ बाधित है इस लिये "जीवादीनां सम्यग्दर्शनादीनां च" इतना सूत्र बढाकर ही बनाना ठीक है ? सो नहीं । जैसे अर्थ की जहां आवश्यकता होती है उसीके अनुसार विभक्तियों का परिणमन कर लिया जाता है । जिसतरह 'उच्चानि देवदत्तस्य गृहाण्या मंत्रयस्वनं' अर्थात् ऊँच बने हुए घर देवदत्तके हैं उसे (देवदत्तको ) बुला लो | siपर यद्यपि 'देवदत्तस्य' यह षष्ठ्यंत पद है तथापि बुलानारूप क्रिया के कर्म में द्वितीया ही होती है इसलिये 'देवदत्तस्य' इस षष्ठी विभक्त्यंतका परिणमन कर 'देवदचं' इस द्वितीया विभक्त्यंतका अध्याहार होता है उसीतरह निर्देश स्वामित्व इत्यादि सूत्रमें प्रथमा विभक्त्यंत जीव आदि वा सम्यग्दर्शन आदिका अर्थ बाधित है इसलिये प्रथमाविभक्तिका षष्ठी विभक्ति परिणमन कर षष्ठयंत ही जीव आदि वा सम्यग्दर्शन आदिकी वहां अनुवृत्ति है इस रीति से षष्ठ्यंत जीव आदि वा सम्यग्दर्शन आदि की अनुवृत्ति युक्तिसिद्ध है तब उनका सूत्रमें उल्लेख करना व्यर्थ है । निर्देशस्वामित्व इत्यादि सूत्र में 1. निर्देशका ही सबसे पहिले पाठ क्यों रक्खा गया ? उसका समाधान
अवधृतार्थस्य धर्मविकल्पप्रतिपत्तेरादौ निर्देशवचनं ॥ १ ॥
जिस पदार्थका पहिले नाम जान लिया जाता है उसी पदार्थ के स्वभाव और विशेषका ज्ञान होता है जिस तरह आत्मपदार्थका नाम जान लेनेपर उसका स्वभाव चैतन्य है और ज्ञान दर्शन आदि विशेष है यह ज्ञान होता है किंतु जिसके नामका भी ज्ञान नहीं, उसके स्वभाव वा विशेषोंका भी ज्ञान नहीं हो
निय