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________________ R- भाषा तरा० 5A5FERRABASIRAEBASAB उसी नयकी अपेक्षा यदि वह अनित्य माना जाय एवं पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा जो घट अनित्य है | उसी नयकी अपेक्षा यदि वह नित्यं भी मान लिया जाय तब अनेकांत वादको छल कहनेका अवकाश मिल सकता है सो है नहीं किंतु जिस युक्तिमें अस्तित्व नास्तित्व वा नित्यत्व अनित्यत्वं आदि दोनों | प्रकारके गुणोंकी प्रधानता है और विवक्षित और अविवाक्षितरूप जो व्यवहार उसकी सिद्धिकी साम-है। | य मौजूद है ऐसी युक्तिसे पुष्ट अनेकांत वाद है इसलिये उसमें छल दोषका समावेश नहीं हो सकता। संशयहेतुरिति चेन्न विशेषलक्षणोपलब्धेः॥९॥ । यदि कदापि यह कहा जाय कि अनेकांतवाद संशयका कारण है क्योंकि 'एफवस्तुविशेष्यविरुद्ध नानाधर्मप्रकारकज्ञानं हि संशयः' अर्थात् किसी एक वस्तुमें परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मोंका ज्ञान ||5|| | होना संशय ज्ञान कहा जाता है जिप्ततरह नदीके उस पारमें रहनेवाले वृक्षमें अंधकार हो जानेसे स्पष्ट ६ दिखाई न पडनेके कारण यह साणु है वा पुरुष है ? ऐसा ज्ञान होता है इसलिये एक ही स्थाणुमें खा-हूँ गुत्व और पुरुषत्व दो विरुद्ध धर्मोंका ज्ञान होनेके कारण वह ज्ञान संशय ज्ञान कहा जाता है । उसीकार अनेकांतवादसे एक ही घट आदि पदार्थमें अस्तित्व नास्तित्व वा निसत्व अनित्यत्व आदि विरुद्ध धर्मोंका ज्ञान होता है इसलिये यह भी संशयज्ञान है । इसरीतिसे अनेकांतवाद संशयज्ञानका कारण होनेसे ||२|| अप्रमाण है ? सो ठीक नहीं । जहां पर सामान्य धर्म दिखाई पडता है, विशेष धर्म नहीं दीख पडते || | किंतु विशेष धर्मोंका स्मरण रहता है वहांपर संशयज्ञान होता है जिसतरह-जहांपर स्थाणु पुरुष दोनोंके 8 रहनेका संभव है ऐसी जगह पर रहनेवाले स्थाणुको तो दूरमें खडा रहनेवाला पुरुष संध्याके समय कुछ र , १ सप्तभंगी तरंगिणी पृष्ठ ८० । विरुद्धानेककोटिस्पर्विज्ञानं हि संशयः । न्यायदीपिका ।। RLADACOCKHEADSAEEDORE
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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