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मापा
१०रा०
क्योंकि जुदी जुदी इंद्रियां रूपरस आदिको ग्रहण करनेवाली हैं इसलिये उनमें भेद है। जब केवल चक्षु॥६॥ इंद्रियसे ही रूप रस आदि सबका ग्रहण मान लिया जायगा तब उनमें भेदं तो रहेगा नहीं। सब रूपगुणस्वरूप ही हो जायगे इसलिये सब लोक केवल रूपस्वरूप ही हो जायगा फिर स्पर्शन रसना आदि। पांच इंद्रियोंकी जो जुदी जुदी कल्पना है वह भी व्यर्थ है क्योंकि स्पर्शको ग्रहण करनेकेलिये स्पर्शन इंद्रिय, रस आदिको ग्रहण करनेकेलिये रसना आदि इंद्रियोंकी कल्पना है यदि उन सबका कार्य चक्षु इंद्रियसे ही हो जायगा तब पांच इंद्रियों को माननेकी कोई आवश्यकता नहीं, केवल चक्षु इंद्रिय हो । मानना योग्य है तथा जिसतरह रस आदि विशिष्ट घटका चक्षुइंद्रियसे ग्रहण नहीं होता उसीतरह यदि रूपविशिष्ट घटका भी चक्षुरािंद्रियसे ग्रहण न माना जायगा तो चक्षुसे फिर घटका ज्ञान ही न हो सकेगा, इसरीतिसे घटके देखते ही जो उसके लाने धरने आदिमें प्रवृत्ति होती है वह न हो सकेगी।
अथवा-जितने शब्द होते हैं उतने ही उनके अर्थ भी होते हैं। इसलिये अनेक अर्थोंको कह कर ||5किसी विशेष अर्थको रूढिसे ग्रहण करनेवाले समभिरूढ नयकी अपेक्षा घट कुट आदि पर्यायवाचक ||
शब्दोंका भी भेद माना गया है जिसतरह इंद्र शक पदर एक ही देवराज व्यक्तिके वाचक है तो भी वही देवराज इंदनात इंद्र' ऐश्वर्यसहित होनेसे इंद्र और 'शकनात् शकः शत्रुओंके पराजय आदिमें 5 समर्थ होनेसे शक्र कहा जाता है । उसी तरह घट कुट आदि शब्द एक ही घडा अर्थक वाचक हैं तो भी वह 'घटनात् घटः' जल धारण आदि क्रियाओंमें समर्थ होनेसे घट और 'कौटिल्यात् कुटः' कुटि| लता आदि गुणके संबंधसे कुट कहा जाता है इस रीतिप्ते जिस क्रियाका परिणाम जिस समय होता है उस समय उप्ती क्रियाके अनुकूल अर्थवाचक शब्दका प्रयोग करना चाहिये । इसलिये जिस समय जला
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