SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ P मार ४ ठीक नहीं । सिंहके अन्दर जो क्रूरता शूरता आदि अनेक गुण भयंकरतासे होते हैं, बालकमें उनका हूँ कुछ अंश रहनेपर उसमें सिंहका व्यवहार होना उचित है परन्तु नाम आदिमें तो जीवन आदि गुणका | कैसा भी कुछ अंश नहीं इसलिये उनमें कभी उपचार नहीं हो सकता एवं उपचारके अभावसे उनका भी अभाव कहना पडेगा इस रीतिसे उनसे होनेवाला व्यवहार निवृत्त ही हो जायगा, वह हो नहीं सक्ता। और भी यह वात है कि मुख्यसंप्रत्ययप्रसंगाच्च ॥२८॥ 'गौणमुख्ययोमुख्ये संप्रत्ययः' अर्थात् प्रधान अप्रधान पदार्थों में प्रधानका ही ग्रहण होता है |द || अप्रधानका नहीं । यह सर्वसाधारण नियम है । यदि भावसे होनेवाले व्यवहारको मुख्य व्यवहार मोना जायगा और नाम आदिसे होनेवाले व्यवहारको गौण माना जायगा तो भावसे होनेवाले ही प्रधान व्यवहारका ग्रहण होगा, नाम आदिसे होनेवाले अप्रधान व्यवहारका ग्रहण न हो सकेगा परन्तु जिस पुरुषको नाम आदिके संकेतका ज्ञान है वह नाम आदिके अर्थ वा प्रकरणकी कोई अपेक्षा न कर उन का उच्चारण होते ही तत्काल उनसे होनेवाले व्यवहारक जान लेता है इसलिये नाम आदिसे होनेवाला व्यवहार गौण व्यवहार नहीं कहा जा सकता। यदि कदाचित् यह शंका की जाय किकृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे संप्रत्ययो भवतीति लोके ॥ २९॥ तन्न, किं कारणं ? उभयगतिदर्शनात् ॥३०॥ इहॉपर कृत्रिमका अर्थ रूढि और अकृत्रिमका अर्थ स्वभावसिद्ध अर्थ है । लोकमें यह व्यवहार १ जिसका जो नाम है उसका उसी नामसे व्याख्यान करना अर्थ कहा जाता है। २ यहांपर यह व्याख्यान इस तरह करना चाहिये ऐसा जहां उपदेश है वहां प्रकरण समझना चाहिये। ARENESIDEREDGELESSERECRUARBResome
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy