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भाषा
जगह कपडा आदिसे ढका हुआ और एक जगह खुला हुआ दीख पडता है इसलिये एक ही शरीरमें
ढकना खुलनारूप विरोधी धर्म भी जिसप्रकार अविरोधरूपसे दीख पडते हैं उसीप्रकार एक ही जीव २३२७ आदि वस्तुमें खद्रव्यादिकी अपेक्षा अस्तित्व और परद्रव्य आदिकी अपेक्षा नास्तित्व भी अविरोधरूपले
ना रह सकते हैं, कोई दोष नहीं । तथा|| ऊपर एक जगह अस्तित्व नास्तित्व धर्मोंके रहने में जो वैयाधिकरण्य दोष दिया था वह भी ठीक ||3 || नहीं क्योंकि एक जगह अस्तित्व और नास्तितकी प्रतीति निर्वाधरूपसे सिद्ध है । ऊपर जो अनवस्था |
दोष दिया गया था वह भी अनेकांतवादमें ठीक नहीं क्योंकि उसमें अनंतधात्मक वस्तुको प्रमाणरूपसे ही स्वीकार किया गया है इसलिये अप्रमाणीक पदार्थपरंपराकी वहां कल्पना नहीं हो सकती। संकर | व्यतिकर दोष भी नहीं हो सकते क्योंकि अस्तित्व नास्तित्व आदिकी एक वस्तुमें प्रतीति अवाधरूपसे सिद्ध है क्योंकि जो पदार्थ अमातीतिक होता है वही दोषोंका स्थान रहता है किंतु जो पदार्थ प्रतीति
स्तित्व आदिकी प्रतीति अवाधरूपसे सिद्ध है इस- 13 लिये यहाँपर कोई दोष नहीं लग सकता। संशयका निराकरण पहिले किया जा चुका है। अप्रतिपचि
और अभाव दोष भी यहां स्थान नहीं पा सकते क्योंकि अस्तित्व नास्तित्वकी एक आधारमें निर्बाध रूपसे प्रतीति है । इसप्रकार यह अनेकांतवाद समस्त दोषोंसे रहित निर्दोष और प्रामाणिक है । यही | विवेचन श्रीसप्तभंगीतरंगिणी ग्रंथके आधारसे लिखा गया है और भी स्यात्, एव आदिशब्दोंका विशेष व्याख्यान श्रीअष्टसहस्त्री आदि ग्रंथसे जानना चाहिये ।।१२।।
इसप्रकार तत्त्वार्थराजवातिकके व्याख्यानालंकारमें चौथा अध्याय समाप्त मा॥४॥
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