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________________ अध्याय RECOR है विधान है इसलिये दोनों भंग अप्राचितक्रम हैं अर्थात् इन दोनों भंगोंमें अस्तित्व नास्तित्वका मिलकर है। ३ विधान नहीं। 'स्यादवक्तव्य आत्मा' यहाँपर अस्तित्व नास्तित्वका एक साथ विधान है । 'स्यादस्ति । नास्ति चात्मा' इस चतुर्थ भंगमें अस्तित्व नास्तित्वका प्रचितक्रम है अर्थात् मिलकर दोनोंका विधान है 3 है। पांचवी और छठी भंगोंमेंसे प्रत्येक भंगमें अप्रचितकम और योगपद्य दोनोंका विधान है अर्थात् ६ 'स्यादस्ति चावक्तव्य आत्मा' इस पांचवें भंगमें अप्रचितक्रमकी अपेक्षा अस्तित्वका और योगपद्यकी अपेक्षा अवक्तव्यत्वका विधान है। 'स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्चात्मा' इस छठे भंगमें अप्रचितक्रमकी अपेक्षा एं नास्तित्वका और योगपद्यकी अपेक्षा अवक्तव्यका विधान है तथा 'स्यादस्ति नास्तिचावक्तव्यवात्मा' है इस सातवें भंगमें प्रचितक्रमकी अपेक्षा अस्तित्व नास्तित्वका विधान है अर्थात अस्तित्व नास्तित्वका यहां मिलकर विधान है और योगपद्यकी अपेक्षा अवक्तव्यत्वका विधान है।खुलासा इसप्रकार हैॐ द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा सामान्य आदिमें किसी एक धर्मकी उपलब्धिसे 'स्यादस्त्येवात्मा' ॐ अर्थात् कथंचित् आत्मा है. यह विकलादेश प्रथम भंग है । यहांपर उपर्युक्त काल आदिकी मेदविवक्षा ६ है इसलिए आत्मारूप वस्तुमें अन्य अनेक धर्मों के विद्यमान रहते भी अस्तित्व शब्दका जो वाच्य अर्थ हूँ है उसमें उनका अंतर्भाव नहीं हो सकता तथा उनका अभाव भी नहीं कहा जा सकता अतः इस प्रथम है भंगमें न उनका निषेध है और न विधान है। इसीप्रकार और भंगोंमें भी विकलादेशकी कल्पना समझ हैं लेना चाहिये । वहांपर जिन अंश-धर्मोंकी विवक्षा होगी उन्हींका प्ररूपण होगा शेष धर्म उदासीन रूपसे रहेंगे अर्थात् न उनका अभाव माना जायगा और न उनका अस्तित्व प्ररूपण किया जा १२०४ सकेगा। शंका BARBATHREPRECAMECRAFROF
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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