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________________ अध्याय ; पर्याय सहवृत्ति हैं क्योंकि जीवमें इनका एक साथ रहना विनिश्चिच है तथा क्रोध मान माया आदि देव । 3 मनुष्य नारकी आदि और बालकपन युवापन आदि क्रमवर्ती पर्याय हैं क्योंकि जीवमें इनका क्रमसे 5/ रहना है अर्थात् एक पर्यायके नष्ट होनेपर दूसरी पर्यायका उदय होता है। यहांपर गति आदि सहवृत्त पर्यायाँसे भिन्न एवं निरंतर पलटनेवाली क्रोध आदि क्रमवर्ती पर्यायॊसे टू ₹ भी भिन्न, एक निश्चल द्रव्यस्वरूप कोई जीव पदार्थ नहीं है किंतु वे गति आदि वा क्रोध आदि धर्म ही है ३ एक विलक्षणरूपसे सन्निविष्ट होकर जीव कहे जाते हैं, जहांपर ऐसी कल्पना है वहांपर उसकी अपेक्षा जीवमें नास्तित्व धर्मका सद्भाव है । अर्थात् द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा जीव है पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा नहीं है इसप्रकार इस छठी भेगमें पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा नास्तित्व रूप अंश है तथा वस्तुत्वरूपसे 'सत्' यह द्रव्यार्थाश है और उस वस्तुत्व के विरोधी अवस्तुत्व रूपसे 'असत्' यह पर्यायांश है जिससमय यहांपर वस्तुत्व अवस्तुत्वकी अपेक्षा सत्त्व असत्वकी एकसाथ अभेदरूपप्ते विवक्षा की जायगी उससमय अवक्तव्य अंश है । इसप्रकार स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च यह छठाभंग स्पष्टरूपसे सिद्ध है। यह भंग भी हैं सकलादेश है क्योंकि नास्तित्वविशिष्ट अवक्तव्यत्वरूप स्वरूपके सिवाय जितना भी वचनका विषयभूत है जीवका स्वरूप है उसके साथ नास्तित्वविशिष्ट अवक्तव्यत्वका अविनाभावसम्बन्ध है इसलिये नास्तित्व. 5 विशिष्ट अवक्तव्यत्वके उल्लेखसे उन सबका यहां ग्रहण है तथा जीवमें अंतर्भूत जितने भी धर्म हैं उनका स्यात् शब्द द्योतन करता है। सातवें भंगकी व्यवस्था इसप्रकार है सातवां भंग 'स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्चात्मा' अर्थात् आत्मा कथंचित् अस्तित्व नास्तित्व और , अवक्तव्य स्वरूप है। यहांपर चार स्वरूपोंसे तीन अंशोंका निर्माण है अर्थात् इस भंगमें एक अस्तित्व SABASAHRAIGALURUGREADGE 2.
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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