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________________ अध्याय श्वरा करको संसारसे वैराग्य होता है और वे वनको जानेके उद्यमी होते हैं उस समय ये लोकांतिक देव उन्हें भाषा और भी दृढ वैराग्यके लिए प्रतिबुद्ध करते हैं। १९२१ ' 'नामकर्मकी उचरोचर असंख्याती प्रकृतियां मानी हैं इसलिये संसारी जीवोंकी शुभ और अशुभ || काँसे जायमान अनेक संज्ञा समझ लेनी चाहिये। इसप्रकार कार्माण शरीर द्वारा आत्रपके अपेक्षा अर्थात् नाना प्रकारके कर्मों के आस्रवसे सुख और दुःखोंके स्थान तथा भव्य और अभव्यके भेदसे दो II भेदवाले संसारी जीवोंकी अपेक्षा यह संसार अनादि अनंत है । मोहनीय कर्मके उपशम तथा नाश करने केलिये उद्यमी और पाया हुवा सम्यग्दर्शन जिनका छूटता नहीं ऐसे जीवों के लिये संसार परिमित है वे प्रा ज्यादहसे ज्यादह सात आठ भव पार कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और कमसे कम दो तीन भोंके | बाद ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं किंतु जिनका सम्यग्दर्शन प्राप्त होकर छूट जाता है उनके लिये मोक्ष की प्राप्ति भाज्य है अर्थात् उनके लिये यह कोई नियम नहीं कि वे कितने दिनोमें मोक्ष प्राप्त करें-उचित | देश काल सामग्री के प्राप्त होने पर वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । अर्थात् अर्धपुद्गल परिवर्तन कालमें वे भी नियमसे मोक्ष चले जाते हैं ॥२२॥ प्राप्त होकर जिनका सम्यक्त्व छुटता नहीं उन सवोंमें समानता है कि कुछ विशेषता है अर्थात् अप्रतिपाती सम्यक्त्ववाले जीव सात आठ भवावतारी ही होते हैं अथवादोआदिभवावतारी भी होते हैं। सूत्रकार इस विषयका स्पष्टीकरण करते हैं १-प्राह उक्ता लोकांतिकास्ततश्च्युत्वा एकं गर्भवासमवाप्य निर्वास्पन्तीत्युक्ताः किमन्येष्वपि निर्वाणप्राप्तिकालो विद्यते ? इत्यत 5 आइ-अर्थात् लौकांतिक देव ब्रह्मवर्गसे चयकर एक भव धारण कर ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, यह बात कह दी गई । क्या BABASATBARADASARAछन FEBRUASSENGAGEGRESORTS
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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