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________________ १ | अध्याय व०रा० भाषा USESSIRSAGA - 18|| उपपादसे लोकके असंख्यात भागों से एक भागमें है । शुक्ललेश्यावाले जीव स्वस्थान और उपपाद द्वारा लोक के (अ) संख्ययभागमें, समुद्घातके द्वारा लोकके असंख्ययभाग वा सर्व लोकमें निवास करते हैं लश्याओंके स्पर्शन (सर्वदा निवास ) की व्यवस्था इसप्रकार है कृष्ण नील और कापोत लेश्याओंके धारक जीव स्वस्थान समुद्घात उपपादोंके द्वारा सर्व लोकका स्पर्श करते हैं। तेजोलेश्यावाले जीव स्वस्थानके द्वारा लोकके असंख्येय भागको अथवा चौदह भागों में | कुछ घाटि आठ भागोंको स्पर्श करते हैं । समुद्घातके द्वारा लोकके असंख्यातं भाग अथवा चौदह | भागोमेसे कुछ घाट आठ या नौ भागोंको स्पर्श करते हैं । उपपादके द्वारा लोकके असंख्यात भाग अथवा चौदह भागोंमें कुछ कम अर्धभाग अर्थात् साडे सात भागोंको स्पर्शते हैं । पद्म लेश्याके धारक | स्वस्थान और समुद्घातके द्वारा लोकके असंख्यात भाग अथवा चौदह भागोंमें कुछ कम आठ भागोंको || स्पर्शते हैं । उपपादके द्वारा लोकके असंख्यात भाग वा चौदह भागोंमें कुछ कम पांच भागोंको स्पर्शने | हैं। शुक्ललेश्यावाले स्वस्थान और उपपादके द्वारा लोकके असंख्यात भाग अथवा चौदह भागोंमें कुछ कम छह भागोंको स्पर्शते हैं। समुद्धातके द्वारा लोकके असंख्यातवें भागको वा चौदह भागों में कुछ कम छह भागोंको वा असंख्येय भागोंको अथवा सर्व लोकको स्पर्शते हैं । लेश्याओंकी कालकृत व्यवस्था | इसप्रकार है- कृष्ण नील और कापोत तीनों लेश्याओंमें प्रत्येक लेश्याका जघन्य काल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागरोपम, कुछ अधिक सत्रह सागर प्रमाण और कुछ अधिक सात सागर प्रमाण है अर्थात कृष्ण लेश्याका उत्कृष्टकाल कुछ अधिक तेतीस सागर प्रमाण है। नील लेश्याका कुछ R MAHESABHANUMAR AANAGERSTREON-SCREERCIENCHAR ११५१
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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