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________________ अध्याय न्तरं ।।३।१४। इस सूत्रसे पूर्वनिपात होता है। गति शब्द अग्नि आदि शब्दों के समान इकारांत है। एवं सूत्रमें शरीर आदि जितने शब्द हैं उनकी अपेक्षा थोडे स्वरवाला भी है इसलिए विसंज्ञक और अल्पान्तर इन दो व्याकरणके नियमों के भीतर प्रविष्ट होनेसे गतिशरीरपरिग्रहेत्यादि.सूत्र में सबसे पहिले गतिशब्दका उल्लेख किया गया है। ततः शरीरगृहणं तस्मिन् सति परिगृहोपपत्तेः॥६॥ सूत्रमें गतिके बाद शरीर शब्दका उल्लेख किया है क्योंकि शरीरकी विद्यमान तामें ही परिग्रहका संभव है अर्थात् शरीरके रहते ही यह मेरा है ऐसी बुद्धिका प्रादुर्भाव होता है। इसलिए परिग्रहसे पहिले शरीर शब्दका उल्लेख सार्थक है । शंका तहत्त्वेऽपि केवलिनः परिग्रहेच्छाभाव इति चेन्न देवाधिकारात ॥ ७॥ शरीरके रहते ही परिग्रह-यह मेरा है ऐसा संकल्प होता है और शरीरके अभावमें नहीं होता है | ऐसा ऊपर कहा गया है परंतु वह अयुक्त है क्योंकि केवली भगवानके शरीर विद्यमान है परंतु यह मेरा है ऐसा उनके संकल्प नहीं होता है इसलिए यहां परिग्रह है क्योंकि यहां शरीर है इस अनुमानमें जो शरीरत्व हेतु परिग्रहकी सचा सिद्ध करनेकेलिए दिया गया है वह व्यभिचार दोषग्रस्त है? सो ठीक नहीं। यहॉपर राग और द्वेषके घारक देवोंका अधिकार है उनके शहीर रहते परिग्रहकी अभिलाषा अवश्य है इसलिए रागादिवान देवोंको पक्ष माननेपर शरिरवत्वहेतु व्यभिचरित नहीं कहा जा सकता। तन्मूलत्वात्तदनंतरमभिमानग्रहणं ॥८॥ संसारमें यह बात स्पष्टरूपसे दीख पडती है कि जिस मनुष्यके पास जितना परिग्रह रहता है उसे १.९९
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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