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________________ अध्याय SANGALORANHAINA - "सूर्यश्च चंद्रमाश्च सूर्याचन्द्रमसौ” यहाँपर बंद्व समास करनेपर 'देवताद्वंद्वे' इस सूत्रसे पूर्वपदको आन हुआ है अर्थात् पूर्वपदको आनञ् करनेपर सूर्या बना है। यदि यहांपर यह शंका की जाय कि सर्वत्र प्रसंग इति चेन्न पुनद्वग्रहणादिष्टे वृत्तिः॥७॥ _ 'देवता दैव इस सूत्रसे द्वंद्वसमासमें देवतावाचक शब्दोंसे पूर्वपदमें आनञ् होता है तो ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकताराः' 'किन्नरकिंपुरुषादय: 'असुरनागादयः' यहाँपर भी पूर्वपदमें आनञ् होना चाहिये | क्योंकि ग्रह आदि भी देवतावाचक शब्द हैं और द्वंद्व समास उनका हुआ है ? सो ठीक नहीं। 'देवता| द्वंदे' इस सूत्रसे पहिलेका सूत्र 'आनञ् द्वंद्वे यह है इसलिये आनञ् द्वंद्वे' इसी सूत्रसे 'देवता द्वंद्वै' में द्वंद्र पदकी अनुवृचि सिद्ध थी फिर जो उसमें बंद पदका उल्लेख किया गया है उसका तात्पर्य यह है कि | समस्त देवतावाचक शब्दोंका द्वंद करनेपर आनञ् नहीं होता किंतु सूर्य चंद्रमा आदि कुछ इष्ट-निर्धारित शब्दोंका द्वंद्व करने पर ही आनञ् होता है इसलिए 'सूर्यश्च चंद्रमाच' इस बंद्वमें तो आनञ् हो । जानेमे 'सूर्याचंद्रमसौं' हो गया और 'ग्रहश्य नक्षत्रं च' आदि द्वंद्वमें आनञ न होनेसे 'ग्रहानक्षत्र' आदि नहीं हुआ। ... . पृथग्गृहणं प्राधान्यख्यापनाथ ॥ ८॥ सूर्य चंद्रमा ग्रह आदिका एक ही साथ द्वंद्व समास करना उचित था। एक साथ द्वंद्व समास कर. नसे सूर्याचन्द्रमोग्रहत्यादि लघुसूत्र करना पडता फिर सूर्याचंद्रमसौं इनका एक द्वंद्व समास और ग्रह नक्षत्र आदिका एक द्वंद्व समास इसप्रकार दो बार द्वंद्व समास क्यों कहा गया ? उमका समाधान यह १-इसकी जगहपर सिद्धांतकौमुदीमें 'आनङ्ऋ तो द्वंद्वे' ६।३ । २५ । यह सूत्र है। R URURUNUARY
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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