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________________ बध्यार प्रवीचार शब्दका- ठीक समन्वय हो जाता इस रूपसे यह बात सिद्ध हो चुकी कि ऊपरके सूत्रसे इसी सूत्रमें प्रवीचार शब्दकी अनुवृत्तिः बिना किसी बाधाके आ सकती है फिर जो प्रवीचार शब्दका ग्रहण | किया गया है उससे आगमके अनुकूल देवोंमें प्रवीचार समझ लेना यही अर्थ घोतित किया गया है। और वह इसप्रकार है___सानत्कुमार और माहेंद्र स्वर्गोंको देवियों को जिससमय यह ज्ञान हो जाता है कि हमारे स्वामी है देव मैथुनजन्य सुखकी अभिलाषासे भोग करने के इच्छुक हैं बडे आनंदसे वे आपसे आप उनके समीप आ जाती हैं। उन देवांगनाओंके शरीरके स्पर्शनमात्रसे उन देवोंको अत्यंत सुख मिलता है फिर वे भोग | करनेकी इच्छासे रहित हो जाते हैं। इसीप्रकार जिससमय देवोंको यह ज्ञान हो जाता है कि हमारी , का देवियां मैथुनजन्य सुखकी अभिलाषासे विषय भोगकेलिए लालायित हैं तो वे देवियों के पास आ जाते ₹ हैं। उन देवोंके स्पर्शमात्रसे देवांगनाओंको अत्यंत आनंद होता है एवं वे तृप्त हो जाती हैं। है। ब्रह्म ब्रह्मोचर लांतव और कापिष्ठ स्वर्गनिवासी देव रूपप्रवीचार हैं वे अपनी देवांगनाओंका है है। स्वभावसे ही प्रिय शृंगार आकार एवं विलासका स्थान मनोहर भेष और रूपके देखनेमात्रसे गाढ विषय सुखका अनुभव करते हैं। इसीप्रकार देवांगनाएं भी विषयसुखका अनुभव करती हैं। शुक महाशुक्र ७ शतार और सहस्रार स्वर्गनिवासी देव मधुर गान हास्यमिश्रित वचन भूषणोंके शब्दोंका सुननारूप | रसायन पीकर सुरतसुखका अनुभव करते हैं देवांगनाओंको भी उससमय अति आनंद प्राप्त होता है। आनत प्राणत आरण और अच्युत स्वों के देव अपनी देवांगनाओंका मनमें विचार करते ही सुरतरससे तृप्त हो जाते हैं। इसीतरह उनकी देवांगनाएं भी अपने स्वामियोंका मनमें विचार करते ही रतिजनित सुखसे तृप्त हो जाती हैं॥८॥ RECORRENER
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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