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अध्याय
द्वयोः' ऐसा पद और जोड देना चाहिए जिससे दो स्वर्गों के रहनेवाले देव स्पर्शप्रवीचारवाले हैं।" 5 आगे दो स्वगों में रहनेवाले रूपप्रवीचारवाले हैं । इत्यादि रूपसे स्पष्ट अर्थ हो जायं सो ठीक नहीं।
ऐसा माननेसे आगमविरोध होता है क्योंकि सानत्कुमार और माहेंद्र स्वर्गके देव स्पर्शप्रवीचारवाले हैं । ब्रह्म ब्रह्मोचर लांतव और कापिष्ट स्वर्गनिवासी देव रूपप्रवीचारवाले हैं। शुक महाशुक्र शतार
और सहस्रार स्वर्गनिवासी देव शब्दप्रविचार हैं एवं आनत प्राणत आरण और अच्युत स्वर्गनिवासी । देव मनःविचार हैं, ऐसा आगममें कहा गया है। अर्थात् दो दो स्वर्गों में रहनेवाले देव 'स्पर्श पीचार
वाले' आदि माने जायगे तो आगमसे यह कथन विरुद्ध कहना पडेगा क्योंकि आगममें चार चार । स्वर्गों के देव भी रूपप्रवीचार आदि कहे गये हैं। यदि यहां पर यह उचर दिया जाय कि
। 'द्वयोर्द्वयो' का अर्थ दो दो इंद्रसंबंधी देवोंमें स्पर्शप्रवीचार आदि हैं ऐसा करेंगे तब तो आगपसे । कुछ विरोध नहीं होगा अर्थात् सानत्कुमार और माहेंद्र स्वर्गों में दो दो इंद्र हैं और उन स्वाँके रहनेवाले
देव स्पर्शग्रवीचारवाले हैं। ब्रह्म ब्रह्मोचर स्वर्गों में एक इंद्र और लांतव कापिष्ठमें एक इंद्र इमरीतिसे इन है. ६ इंद्रोंके स्थान ब्रह्म ब्रह्मोचर लांतव और कांपिष्ठ इन चार स्वगोंके रहनेवाले देव रूपवीचारवाले हैं। १ शुक्र महाशुक्रमें एक इंद्र और शतार सहस्रारमें एक इंद्र इसप्रकार इन दोनों इंद्रोंके निवासस्थान शुक
महाशुक्र शतार और सहस्रार स्वर्गवासी देव शब्दप्रवीचारवाले हैं । इस रूपसे इंद्रोंकी अपेक्षा 'दयो।
ईयो' का उल्लेख करनेसे कोई दोष नहीं आता ? सो भी ठीक नहीं । आनत प्राणत आरण और ॐ अच्युत इन चार स्वर्गों में प्रत्येकमें एक एक इंद्र होनेसे चार इंद्र हैं। यहॉपर इंद्रोंकी अपेक्षा दो दो इंद्रका ५ संबंध नहीं बैठ सकता। यदि यहांपर यह कहा जाय कि जैसा सूत्र कहा गया है उससे वास्तविक अर्थका
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