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-अध्याव
तारा भाषा
PAREEBRBRBASSADO-9-
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ज्ञानको नित्य न माना जायगा तो वह सर्वज्ञ भी नहीं कहा जा सकेगा क्योंकि नित्यज्ञानके अभावमें सर्वज्ञत्वका विरोध है ? सो ठीक नहीं। यदि ईश्वरके ज्ञानको प्रमाण माना जायगा तो उस प्रमाणस्वरूप ज्ञानसे फलस्वरूप ज्ञान अर्थात् प्रमितिको अनित्य कहना पडेगा क्योंकि फलज्ञानको सवोंने अनित्य माना| है। यहांपर यह न समझना चाहिये कि केवल प्रमाण ज्ञान ही मान लेना पर्याप्त है । फलज्ञानके मानने-1 की कोई आवश्यकता नहीं ! क्योंकि फलशून्य प्रमाणपदार्थ सिद्ध ही नहीं हो सकता। इसरीतिसे ईश्वरमें जब फल ज्ञानका भी अस्तित्व है तब फलज्ञान कभी नित्य माना नहीं जासकता क्योंकि वह प्रमाणका कार्य है और कार्य पदार्थ अनित्य ही होता है इसलिए ईश्वरका ज्ञान कभी नित्य नहीं हो सकता। तथा | जब ईश्वरका ज्ञान नित्य नहीं तब नित्यज्ञानत्व रूप हेतु जगकर्तृत्व रूप साध्य के सिद्ध करनेमें असमर्थ ला है। यदि यहांपर यह कहा जाय कि
____ हम ईश्वर ज्ञानको प्रमाण और फल दोनों स्वरूप एक अखंड मानेंगे ? वह भी ठीक नहीं । क्रिया | अपनेसे भिन्न पदार्थमें होती है। यदि ज्ञानको प्रमाणात्मक और फलात्मक दोनों स्वरूप माना जायगा
तो वह अपना फलस्वरूप स्वयं उत्पन्न नहीं हो सकता इसलिये फलज्ञानको प्रमाणज्ञानसे भिन्न ही मानना ७ पडेगा। यदि कदाचित् यह कहा जाय कि
ईश्वरका प्रमाणभूत ज्ञान नित्य है और फलस्वरूप अनित्य है इसरूपसे उसमें नित्यस्वरूप और | अनित्यस्वरूप दो ज्ञानोंकी कल्पना करेंगे? सो भी ठीक नहीं । जिस किसी विशेष बातकी कल्पना की है जाती है वह किसी खास प्रयोजनके सूचित करनेके लिए होती है। यदि ईश्वरके दो ज्ञान माने जायगे
तो उन दो ज्ञानोंके माननेका प्रयोजन कहना चाहिये । यदि यहाँपर यह उचर दिया जाय कि
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