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अध्याप
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पंचेंद्रियाणां पूर्वकोटिनवपूर्वांगानि द्विचत्वारिंशद्वासप्ततिवर्षसहस्राणि त्रिपल्योपमा च ॥५॥
पंचेंद्रियोंमें तिथंच पंचोंद्रिय जलचर, परिसर्प, उरग, पक्षी और चतुष्पादोंके भेदसे पांच प्रकारके हैं। हैं उनमें मच्छी आदिक जो जलचर हैं उनकी उत्कृष्टस्थिति कोडिपूर्वकी है। गोह नौला आदि परिसपाकी
नौ पूर्वांगोंकी है। उरगों (सौं) की व्यालीस हजार वर्षकी है । पक्षियोंकी बहचर हजार वर्षकी है एवं ई चौपायोंकी तीन पल्योंकी है । ऊपर जितने भी तिर्यंच कहे गये हैं उन सबकी जघन्यस्थिति अंतर्मुहूर्त
प्रमाण है। शंका-'नृस्थिती परावरे' इत्यादि सूत्रसे मनुष्योंको उत्कृष्टस्थिति तीन पल्यकी और जघन्य हैं, स्थिति अंतर्मुहूर्तप्रमाण कही गई है। इसीप्रकार तियचोंकी भी उत्कृष्ट और जघन्यस्थिति 'तिर्यग्योनिमें जानां च' इस सुत्रसे कही गई है। इस रीतिसे मनुष्य और तिर्यचौकी स्थिति जब बराबर है तब दोनों । सूत्रोंका एक ही सूत्र करना चाहिये था, योगविभाग अर्थात् भिन्न भिन्न दो सूत्र क्यों कहे गये १ उचर
पृथग्योगग्रहणं यथासंख्यनिवृत्त्यर्थ ॥६॥ यदि 'नृस्थितीपरावरे इत्यादि' और 'तिर्यग्योनिजानां च' इन दोनों सूत्रों का एक सूत्र कहाजाता १ तो मनुष्योंकी उत्कृष्टस्थिति तीन पल्यकी है और तिथंचोंकी जघन्यस्थिति अंतर्मुहूर्त है यह क्रमिक र् अनिष्ट अर्थ होता इस आनिष्ट अर्थकी निवृत्ति केलिए एवं मनुष्योंकी उत्कृष्टस्थिति तीन पल्य और जघन्य २ स्थिति अंतर्मुहूर्त है तथा तियचोंकी भी उत्कृष्टस्थिति तीन पल्य और जघन्यस्थिति अंतर्मुहूर्त है इस तु
रूपसे प्रत्येकी दोनों प्रकारकी स्थितिकी सिद्धिकेलिए दोनों सूत्रोंका भिन्न भिन्न रूपसे उल्लेख किया गया है। यदि यहाँपर यह शंका हो कि
मनुष्य और तिर्यचौकी भवस्थिति और कायस्थिति क्या है ? और उन दोनों प्रकारकी स्थितियोंमें
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