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उसका नाम मागभाव है। इसलिए इसको अनादि सांतही मानना होगा । अन्यथा हम पूछते हैं कि, घटादि पदार्थोंकी उत्पत्तिसे पहले उनके कारणों में निवास करते हुए प्रागभावके समयके हिसाबका क्या स्वामीजीकी डायरीमें कोई नोट है ? हम नहीं कह सकते कि, स्वामीजी प्रागभावको मानकर भी अनादि पदार्थको नित्य ही क्यों मान रहे हैं ?
[ख] ___ सज्जनो ! आत्मा के साथ कोंके आत्यंतिक वियोगको जैन दर्शनमें मोक्ष बतलाया है. जैसे धान्यका बीज, छिलकेसे पृथक् हुआर फिर नहीं उत्पन्न होता, इसी प्रकार कर्मरूप छिलकेसे सर्वथा जुदा हुआर यह आत्मा भी जन्म मरण रूप संसार परंपराको कभी प्राप्त नहीं होता. जिस प्रकार दग्ध हुआ वीज फिर पैदा नहीं होता, इसी तरह मोक्षात्मा का भी संसारमें फिर जन्म नहीं होता. यथा-हरिभद्रसूरिः
दग्धे वीजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भव कर्मवीने तथा दग्धे, नारोहति भवाङ्करः ॥ १॥"
मोक्षके नित्य होनेमें जैनदर्शन के सिवा, अन्य दर्शनकारोंका भी एक ही मत है. इस विषयमें जैनोंपर स्वामीजीने जो आक्षेप किया है वह ऐसा विद्वत्तापूर्ण है कि, उसकी प्रशंसा कोई स्वामीजी जैसा ही भाग्यशाली जन्मे तो चाहे कर सके ! हम तो करनेमें सर्वथा असमर्थ हैं.
स्वामीजी कहते हैं कि, " कोंके छूटनेको यदि मुक्ति कहोगे तो कौका छूटना मुक्तिका निमित्त होगा तब तो मुक्ति संदा न रहेगी." इसका तात्पर्य यह है कि, आत्माके साथ जो कर्मका संयोग है उसके आत्यंतिक विनाशको यदि मुक्ति