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________________ ४५ सभ द्वीपों के बीच में है इस का प्रमाण एक लाख योजन अर्थात् चार लाख कोशका है और इसके चारों ओर लवण समुद्र है उसका प्रमाण दो लाख योजनका है अर्थात् आठ लाख कोशका | इस जंबूद्वीप के चारों ओर जो " धातकी खंड " नाम द्वीप है उसका चार लाख योजन अर्थात् सोलह लाख कोशका प्रमाण है और उसके पीछे “कालोदधि" समुद्र है उसका आठ लाख अर्थात् बत्रीस लाख कोशका प्रमाण है उसके पीछे "पुष्करावर्त" द्वीप है उसका प्रमाण 'सोलह कोशका है । उस द्वीपके भीतरकी कोरें हैं उस द्वीपके आधेमें मनुष्य वसते हैं और उसके उपरांत असंख्य द्वीप समुद्र है उनमें तिर्यक् योनिके जीव रहते हैं । ( रत्नसार भा. पृ. १५३) जंबूद्वीपमें एक हिमवंत, एक ऐरण्यवंत, एक हरिवर्ष, एक रम्यक, एक देवकुरु, एक उत्तरकुरु ये छः क्षेत्र हैं । ( समीक्षक) सुनो भाई ! भूगोल विद्या के जाननेवाले लोगो ! भूगोलके परिमाण करनेमें तुम भूले या जैन ? जो जैन भूल गये हों तो तुम उनको समझाओ और जो तुम भूले हों तो उनसे समझ लेभो । थोडासा विचार करके देखो तो यही निश्चय होता है कि जैनियोंके आचार्य और शियाने भूगोल खगोल और गणित विद्या कुछ भी नहीं पढ़ी थी जो पढ़े होते तो महा असंभव गपोड़ा क्यों मारते ? भला ऐसे अविद्वान् पुरुष जगत् को अकर्तृक और ईश्वरको न माने इसमें क्या आश्चर्य है ? [ सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ ४२२ ] (१) यहांपर स्वामीजी भूल गये हैं उनको सोलह कोसके स्थान में सोलह लाख योजन लिखना चाहिए था ! ॥ (२) यह स्वामीजीकी भाषा, वाक्यरचना तथा उसके परस्पर संबंधका नमूना है ! न मालूम क्या समझ कर स्वामीजीने : इसको लिख मारा ? ॥ १
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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