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विद्वान से पढ़ा ! इसलिये नष्ट भ्रष्ट बुद्धि होकर ऊटपटांग वेदोंकी निंदा करने लगे" इत्यादि - यद्यपि स्वामीजी महाराजका यह कथन (इनमें वेदोंके जाननेवाला कोई विद्वान नहीं है इत्यादि) संभव नहीं कि, उचित हो ! परंतु स्वामीजीके कथनको एक दफा चुपचाप सुन लेना हमारे लिये जरूरी है ! स्वामी " दयानंदजी " कहते हैं " दुष्ट वाम मार्गियोंकी प्रमाण शून्य कपोल कल्पित भ्रष्ट टीकाओं को देखकर वेदोंसे विरोधी होकर (चार्वाकादि) अविद्यारूपी अगाध समुद्र में जा गिरे" इसका तात्पर्य यह है कि, वेदोंके जिन भाष्योंको देखकर चार्वाकादि वेदोंकी निंदा करते हैं, वे भाष्य वाम मार्गियों के बनाए हुए हैं ! वाम मार्गियोंने अपने स्वार्थ वशसे वेदोंपर मद्य मांस तथा व्यभिचारका कलंक लगाया है ! परंतु वेदों में कहीं मांसका खाना नहीं लिखा ! | हमारा इसमें इतना ही कथन है कि, कदापि स्वामीजी के प्रतिपक्षी, स्वामीजीके विषयमें भी यही कहें कि, स्वामी " दयानंद " सरस्वतीजी वेदोंके वास्तविक रहस्यको नहीं समझें ! उन्होंने वृथा ही प्रमाण शून्य कपोल कल्पित अर्थ करके वेदोंकी सत्यताको नष्ट भ्रष्ट कर दिया है ! यदि स्वामीजी तनिक भी अपनी बुद्धिसे काम लेते तो ऐसा कदापि न कहते कि, वेदोंके भाष्य वाम मार्गियों के बनाए हुए हैं ! स्वामीजी दूसरोंको अविद्यारूपी अगाध समुद्र में गिराते हुए स्वयं ही अविद्याके गंभीर समुद्रमें गोते लगा रहे हैं ! जैसे कि, ब्राह्मण सर्वस्वके सम्पादक इटावा निवासी पंडित भीमसेन शर्माजी लिखते हैं कि, " जिस यज्ञादिक कर्ममें जिसप्रकार जिस पशुका बलिदान वेद में कर्त्तव्य कहा है वहां वह कर्म हिंसा नहीं अधर्म नहीं किंतु वेदोक्त धर्म है " [ब्रा. भा. ४ अं. १ पृ. १२]