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________________ १४१ "क्या सम्मतियें पलटते । जितनी आयु वढ़"ती थी उतनी ही विद्या और ज्ञान उनका "अधिक होता जाता था, उतना ही प्रत्यय "प्रकाश उनपर डालंता जाता था। ऐसी "अवस्थामें कौन कह सकता है कि स्वामीजी "निर्धान्त थे । जो महाशय उनको निर्धान्त "मानते हैं वह कृपाकर उस समय को भी "प्रकट करें जब कि वह निर्धान्त हुए।" [पृष्ठ १४२ ] अस्तु ! अब स्वामीजीकी एक और बातपर पाठक ध्यान दें। स्वामीजी "हां जैनियों में जो उत्तम पुरुष हैं उनका संग करनेमें कुछ दोष नहीं" लिखते हुए जो नोटमें लिखते हैं कि "जो उत्तम पुरुष होगा वह इस असारजैनमतमें कभी न रहेगा" इसकी संगति हमारे ख्यालमें नहीं आती । क्योंकि स्वामीजीके कथन मुताबिक जैनों में उत्तम पुरुप तोरह ही नहीं . सकता, जो रहे वह उत्तम नहीं अर्थात् अधम है ! तो फिर जैनोंमें वह उत्तम पुरुष आयगा कहांसे ? जिसके संग करनेमें स्वाभीजी दोष नहीं बतलाते : यदि नोटके कथनको सच्चा माना जाय तब तो उनका ऊपरका कथन झूठा ठहरता है और यदि ऊपरका कथन ही सत्य माना जाय तब नोटका उल्लेख मिथ्या सिद्ध होता है ! इसलिए उक्त दोनों लेखों से स्वामीजीके किस लेखको सत्य और किसको झूठा ठहराना ? इसकी सप्रमाण मीमांसा यदि कोई समाजी महाशय ही कर
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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