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११२ । जैसे प्रथम लिख आये कि सर्प में मणिका भी त्याग करना उचित है वैसे अन्य मार्गियों में श्रेष्ठ धार्मिक पुरुषोंका भी त्याग कर देना अब उससे भी विशेष निन्दा अन्य मतवालोंकी करते हैं. जैन मतसे विरुद्ध सब कुगुरु अर्थात् वे सपैसे भी बुरे हैं उनका दर्शन सेवा संग कभी न करना चाहिये क्योंकि सर्पके संगसे एकवार मरण होता है
और अन्यमार्गी कुगुरुओंके संगसे अनेकवार मरणमें गिरना पड़ता है इसलिये हे भद्र अन्यमार्गियोंके गुरुओंके पास 'मी मत खड़ा रह क्योंकि जो तूं अन्यमार्गियोंकी कुछ भी सेवा करेगा तो दुःखमें पड़ेगा (समीक्षक) देखिये जैनियोंके समान कठोर प्रांत द्वेषी निन्दक भूला हुभा दूसरे मतवाले कोई भी न होंगे इन्होने मनसे यह विचारा है कि हम अन्यकी निन्दा
और अपनी प्रशंसा न करेंगे तो हमारी सेवा और प्रतिष्टा न होगी इत्यादि [ सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ ४३१]
. . [] '. समालोचक-सज्जनो ! "गुरोचालीकनिवन्धः, समानि ब्रह्महत्यया" किसी सुप्रतिष्ठित धर्मात्मा व्यक्तिपर झूठा इलजाम लंगाना ब्रह्महत्याके समान बड़ा भारी पाप है ! इस पापको धर्मशास्त्रकारोंने सामान्य. मनुष्यको मार देनेसे भी किसी दुर्जे अधिक बतलाया है ! स्वामीजीने बरायँ नाम जैन ग्रंथों के कतिपय वाक्योंको सत्यार्थ प्रकाशमें उद्धत करके उनके मनमाने अर्थ बतला कर जैनोंपर जो मिथ्या कलंक लगाए हैं, उनसे उपार्जन किए हुए पापसे उनकी आत्माको कितनी शांति प्राप्त हुई होगी यह हम नहीं कह सकते ! स्वामीजीने यहां जो कुछ लिखा है वह केवल द्वेष बुद्धिसे ही लिखा हैं, यह